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पृष्ठ:गो-दान.djvu/२९४

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२९६ गोदान

उनकी निर्जीव, निराश, आहत आत्मा सान्त्वना के लिए विकल हो रही थी; सच्ची स्नेह में डूबी हुई सान्त्वना के लिए, उस रोगी की भाँति जो जीवन-सूत्र क्षीण हो जाने पर भी वैद्य के मुख की ओर आशा-भरी आँखों से ताक रहा हो। वही गोविन्दी जिस पर उन्होंने हमेशा जुल्म किया, जिसका हमेशा अपमान किया, जिससे हमेशा बेवफाई की, जिसे सदैव जीवन का भार समझा, जिसकी मृत्यु की सदैव कामना करते रहे, वही इस समय जैसे अंचल में आशीर्वाद और मंगल और अभय लिये उन पर वार रही थी, जैसे उन चरणों में ही उनके जीवन का स्वर्ग हो, जैसे वह उनके अभागे मस्तक पर हाथ रखकर ही उनकी प्राणहीन धमनियों में फिर रक्त का संचार कर देगी। मन की इस दुर्बल दशा में, घोर विपत्ति में, मानो वह उन्हें कण्ठ से लगा लेने के लिए खड़ी थी। नौका पर बैठे हुए जल-विहार करते समय हम जिन चट्टानों को घातक समझते हैं, और चाहते हैं कि कोई इन्हें खोद कर फेंक देता, उन्हीं से, नौका टूट जाने पर, हम चिमट जाते हैं।

गोविन्दी ने उन्हे एक सोफ़ा पर बैठा दिया और स्नेह-कोमल स्वर में बोली--तो तुम इतना दिल छोटा क्यों करते हो? धन के लिए, जो सारे पाप की जड़ है ? उस धन से हमें क्या सुख था ? सबेरे से आधी रात तक एक-न-एक झंझट--आत्मा का सर्वनाश ! लड़के तुमसे बात करने को तरस जाते थे, तुम्हें सम्बन्धियों को पत्र लिखने तक की फुरसत न मिलती थी। क्या बड़ी इज्जत थी? हॉ, थी; क्योंकि दुनिया आज तक धन की पूजा करती चली आयी है। उसे तुमसे कोई प्रयोजन नहीं। जब तक तुम्हारे पास लक्ष्मी है, तुम्हारे सामने पूंँछ हिलायेगी। कल उतनी ही भक्ति से दूसरों के द्वार पर सिजदे करेगी। तुम्हारी तरफ़ ताकेगी भी नहीं। सत्पुरुष धन के आगे सिर नहीं झुकाते। वह देखते हैं, तुम क्या हो; अगर तुममें सच्चाई है, न्याय है, त्याग है, पुरुषार्थ है, तो वे तुम्हारी पूजा करेंगे। नही तुम्हें समाज का लुटेरा समझकर मुंँह फेर लेंगे; बल्कि तुम्हारे दुश्मन हो जायंँगे। मैं ग़लत तो नहीं कहती मेहताजी ?

मेहता ने मानों स्वर्ग-स्वप्न से चौंककर कहा-ग़लत? आप वही कह रही है, जो संसार के महान् पुरुषों ने जीवन का सात्त्विक अनुभव करने के बाद कहा है। जीवन का सच्चा आधार यही है।

गोविन्दी ने मेहता को सम्बोधित करके कहा--धनी कौन होता है, इसका कोई विचार नहीं करता। वही जो अपने कौशल से दूसरों को बेवकूफ़ बना सकता है...

खन्ना ने बात काटकर कहा-नहीं गोविन्दी, धन कमाने के लिए अपने में संस्कार चाहिए। केवल कौशल से धन नहीं मिलता। इसके लिए भी त्याग और तपस्या करनी पड़ती है। शायद इतनी साधना में ईश्वर भी मिल जाय। हमारी सारी आत्मिक और बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों के सामंजस्य का नाम धन है। )

गोविन्दी ने विपक्षी न बनकर मध्यस्थ भाव से कहा--मैं मानती हूँ कि धन के लिए थोड़ी तपस्या नहीं करनी पड़ती; लेकिन फिर भी हमने उसे जीवन में जितने महत्त्व की वस्तु समझ रखा है, उतना महत्त्व उसमें नहीं है। मैं तो खुश हूँ कि तुम्हारे