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३०० गोदान

दिया, तो बेचारी अबला क्या करे ? मर्द बुरा हो, तो औरत की गर्दन काट लेगा। औरत बुरी हो, तो मर्द के मुंँह में कालिख लगा देगी।

इसके दो महीने बाद एक दिन गाँव में यह खबर फैली कि नोहरी ने मारे जूतों के भोला की चाँद गंजी कर दी।

वर्षा समाप्त हो गयी थी और रबी बोने की तैयारियांँ हो रही थीं। होरी की ऊख तो नीलाम हो गयी थी। ऊख के बीज के लिए उसे रुपए न मिले और ऊख न बोई गयी। उधर दाहिना बैल भी बैठाऊँ हो गया था और एक नये बैल के बिना काम न चल सकता था। पुनिया का एक बैल नाले में गिरकर मर गया था, तब से और भी अड़चन पड़ गयी थी। एक दिन पुनिया के खेत में हल जाता, एक दिन होरी के खेत में। खेतों की जुताई जैसी होनी चाहिए, वैसी न हो पाती थी।

होरी हल लेकर खेत में गया; मगर भोला की चिन्ता बनी हुई थी। उसने अपने जीवन में कभी यह न सुना था कि किसी स्त्री ने अपने पति को जूते से मारा हो। जूतों से क्या थप्पड़ या घूसे से मारने की भी कोई घटना उसे याद न आती थी; और आज नोहरी ने भोला को जूतों से पीटा और सब लोग तमाशा देखते रहे। इस औरत से कैसे उस अभागे का गला छुटे ! अब तो भोला को कहीं डूब ही मरना चाहिए। जब ज़िन्दगी में बदनामी और दुर्दसा के सिवा और कुछ न हो, तो आदमी का मर जाना ही अच्छा। कौन भोला के नाम को रोनेवाला बैठा है। बेटे चाहे क्रिया-करम कर दे; लेकिन लोकलाज के बस, ऑमू किसी की आंँख में न आयेगा। तिरसना के बस में पड़कर आदमी इस तरह अपनी ज़िन्दगी चौपट करता है। जब कोई रोनेवाला ही नहीं, तो फिर ज़िन्दगी का क्या मोह और मरने से क्या डरना!

एक यह नोहरी है और एक यह चमारिन है सिलिया! देखने-सुनने में उससे लाख दरजे अच्छी। चाहे तो दो को खिलाकर खाये और राधिका बनी घूमे; लेकिन मजूरी करती है, भूखों मरती है और मनई के नाम पर बैठी है, और वह निर्दयी बात भी नहीं पूछता। कौन जाने, धनिया मर गयी होती, तो आज होरी की भी यही दसा होती। उसकी मौत की कल्पना ही से होरी को रोमांच हो उठा। धनिया की मूर्ति मानमिक नेत्रों के मामने आकर खड़ी हो गयी--सेवा और त्याग की देवी; जवान को तेज़, पर मोम जैसा हृदय ; पैसे-पैसे के पीछे प्राण देनेवाली, पर मर्यादा-रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम कर देने को तैयार। जवानी में वह कम रूपवती न थी। नोहरी उसके सामने क्या है। चलती थी, तो रानी-सी लगती थी। जो देखता था, देखता ही रह जाता था। यह पटेश्वरी और झिगुरी तब जवान थे। दोनों धनिया को देखकर छाती पर हाथ रख लेते थे। द्वार के सौ-सौ चक्कर लगाते थे। होरी उनकी ताक में रहता था; मगर छेड़ने का कोई बहाना न पाता था। उन दिनों घर में खाने-पीने की बड़ी तंगी थी। पाला पड़ गया था और खेतों में भूसा तक न हुआ था। लोग झड़बरियाँ खा-खाकर दिन काटते थे। होरी को क़हत के कैम्प में काम करने जाना पड़ता था। छ: पैसे रोज़ मिलते थे। धनिया घर में अकेली ही रहती थी। लेकिन कभी किसी ने उसे किसी छैला