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गो-दान
 

तरह काम में लगे रहते हैं। घुड़कियाँ, गालियाँ, यहाँ तक कि डण्डों की मार भी उनमें ग्लानि नहीं पैदा करती;और अब पुराने मजदूरों के लिए इसके सिवा कोई मार्ग नहीं रह गया है कि वह इसी घटी हुई मजूरी पर काम करने आयें और खन्ना साहब की खुशामद करें। पण्डित ओंकारनाथ पर तो उन्हें अब रत्ती-भर भी विश्वास नहीं है। उन्हें वे अकेले-दुकेले पायें तो शायद उनकी बुरी गत बनायें;पर पण्डितजी बहुत बचे हुए रहते हैं। चिराग़ जलने के बाद अपने कार्यालय से बाहर नहीं निकलते और अफ़सरों की खुशामद करने लगे हैं। मिर्जा खुर्शद की धाक अब भी ज्यों-की-त्यों है;लेकिन मिर्जाजी इन बेचारों का कष्ट और उसके निवारण का अपने पास कोई उपाय न देखकर दिल से चाहते हैं कि सब-के-सब बहाल हो जायँ;मगर इसके साथ ही नये आदमियों के कप्ट का ख्याल करके जिज्ञासुओं से यही कह दिया करते हैं कि जैसी इच्छा हो वैसा करो।

मिस्टर खन्ना ने पुराने आदमियों को फिर नौकरी के लिए इच्छुक देखा,तो और भी अकड़ गये,हलांकि वह मन में चाहते थे कि इस वेतन पर पुराने आदमी नयों मे कहीं अच्छे हैं। नये आदमी अपना सारा ज़ोर लगाकर भी पुराने आदमियों के बराबर काम न कर सकते थे। पुराने आदमियों में अधिकांश तो बचपन से ही मिल में काम करने के अभ्यस्त थे और खूब मॅजे हुए। नये आदमियों में अधिकतर देहातों के दुखी किसान थे,जिन्हें खुली हवा और मैदान में पुराने जमाने के लकड़ी के औजारों से काम करने की आदत थी। मिल के अन्दर उनका दम घुटता था और मशीनरी के तेज चलनेवाले पुों से उन्हें भय लगता था। आखिर जव पुराने आदमी खूब परास्त हो गये तब खन्ना उन्हें बहाल करने पर राजी हुए;मगर नये आदमी इससे कम वेतन पर काम करने के लिए तैयार थे और अब डायरेक्टरों के सामने यह सवाल आया कि वह पुरानों को बहाल करें या नयों को रहने दें डायरेक्टरों में आधे तो नये आदमियों का वेतन घटाकर रखने के पक्ष में थे। आधों की यह धारणा थी कि पुराने आदमियों को हाल के वेतन पर रख लिया जाय। थोड़े-से रुपए ज्यादा खर्च होंगे ज़रूर,मगर काम उससे ज्यादा होगा। खन्ना मिल के प्राण थे,एक तरह से सर्वेसर्वा। डायरेक्टर तो उनके हाथ की कठपुतलियाँ थे। निश्चय खन्ना ही के हाथों में था और वह अपने मित्रों से नहीं,शत्रुओं से भी इस विषय में सलाह ले रहे थे। सबसे पहले तो उन्होंने गोविन्दी की सलाह ली। जव से मालती की ओर से उन्हें निराशा हो गयी थी और गोविन्दी को मालूम हो गया था कि मेहता जैसा विद्वान् और अनुभवी और ज्ञानी आदमी मेरा कितना सम्मान करता है और मुझसे किस प्रकार की साधना की आशा रखता है,तब से दम्पति में स्नेह फिर जाग उठा था। स्नेह मत कहो;मगर साहचर्य तो था ही। आपस में वह जलन और अशान्ति न थी। बीच की दीवार टूट गयी थी।

मालती के रंग-ढंग की भी कायापलट होती जाती थी। मेहता का जीवन अब तक स्वाध्याय और चिन्तन में गुजरा था,और सब कुछ कर चुकने के बाद और आत्मवाद तथा अनात्मवाद की खूब छान-बीन कर लेने पर वह इसी तत्त्व पर पहुँच जाते थे कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच में जो सेवा-मार्ग है,चाहे उसे कर्मयोग ही कहो,