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गोदान ३११

धनिया ने कहा--यहाँ यह सब सफाई और संयम कैसे होगा सरकार ! भोजन तक का ठिकाना तो है नहीं।

मालती ने समझाया, सफाई में कुछ खर्च नहीं। केवल थोड़ी-सी मेहनत और होशियारी से काम चल सकता है।

दुलारी सहुआइन ने पूछा--यह सारी बातें तुम्हें कैसे मालूम हुई सरकार, आपका तो अभी ब्याह ही नहीं हुआ?

मालती ने मुस्कराकर पूछा--तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मेरा ब्याह नहीं हुआ है ?

सभी स्त्रियाँ मुँह फेरकर मुस्कराई। धनिया बोली--भला यह भी छिपा रहता है, मिस साहब; मुंँह देखते ही पता चल जाता है।

मालती ने झेंपते हुए कहा--इसीलिए ब्याह नहीं किया कि आप लोगों की सेवा कैसे करती?

सबने एक स्वर से कहा--धन्य हो सरकार, धन्य हो।

सिलिया मालती के पाँव दवाने लगी--सरकार कितनी दूर से आयी हैं, थक गयी होंगी।

मालती ने पाँव खींचकर कहा--नहीं-नहीं, मैं थकी नहीं हूँ। मैं तो हवागाड़ी पर आयी हूँ। मैं चाहती हूँ, आप लोग अपने बच्चे लायें, तो मैं उन्हें देखकर आप लोगों को बताऊँ कि आप उन्हें कैसे तन्दुरुस्त और नीरोग रख सकती हैं।

ज़रा देर में बीस-पच्चीस बच्चे आ गये। मालती उनकी परीक्षा करने लगी। कई बच्चों की आँखें उठी थीं, उनकी आँख में दवा डाली। अधिकतर बच्चे दुर्बल थे। इसका कारण था, माता-पिता को भोजन अच्छा न मिलना। मालती को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि बहुत कम घरों में दूध होता था। घी के तो सालों दर्शन नहीं होते।

मालती ने यहाँ भी उन्हें भोजन करने का महत्त्व समझाया, जैसा वह सभी गाँवों में किया करती थी। उसका जी इसलिए जलता था कि ये लोग अच्छा भोजन क्यों नहीं करते? उसे ग्रामीणों पर क्रोध आ जाता था। क्या तुम्हारा जन्म इसीलिए हुआ है कि तुम मर-मरकर कमाओ और जो कुछ पैदा हो, उसे खा न सको? जहाँ दो-बार बैलों के लिए भोजन है, एक दो गाय-भैसों के लिए चारा नही है ? क्यों ये लोग भोजन को जीवन की मुख्य वस्तु न समझकर उसे केवल प्राणरक्षा की वस्तु समझते हैं ? क्यों सरकार से नहीं कहते कि नाम-मात्र के ब्याज पर रुपए देकर उन्हें सूदखोर महाजनों के पंजे से बचाये? उसने जिस किसी से पूछा, यही मालूम हुआ कि उसकी कमाई का बड़ा भाग महाजनों का कर्ज चुकाने में खर्च हो जाता है। बटवारे का मरज़ भी बढ़ता जाता था। आपस में इतना वैमनस्य था कि शायद ही कोई दो भाई एक साथ रहते हों। उनकी इस दुर्दशा का कारण बहत कुछ उनकी संकीर्णता और स्वार्थपरता थी। मालती इन्हीं विषयों पर महिलाओं से बातें करती रही। उनकी श्रद्धा देख-देख कर उसके मन में सेवा की प्रेरणा और भी प्रबल हो रही थी। इस त्यागमय जीवन के सामने वह विलासी जीवन कितना तुच्छ और बनावटी था। आज उसके वह रेशमी