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गोदान ३१९


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राय साहब का सितारा बुलन्द था। उनके तीनों मंसूवे पूरे हो गये थे। कन्या की शादी धूम-धाम से हो गयी थी, मुक़दमा जीत गये थे और निर्वाचन में सफल ही न हुए थे, होम मेम्बर भी हो गये थे। चारों ओर से बधाइयाँ मिल रही थीं। तारों का तांँता लगा हुआ था। इस मुक़दमे को जीतकर उन्होंने ताल्लुकेदारों की प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर लिया था। सम्मान तो उनका पहले भी किसी से कम न था; मगर अब तो उसकी जड़ और भी गहरी और मजबूत हो गयी थी। सामयिक पत्रों में उनके चित्र और चरित्र दनादन निकल रहे थे। कर्ज़ की मात्रा बहुत बढ़ गयी थी; मगर अव राय साहब को इसकी परवाह न थी। वह इस नयी मिलिकियत का एक छोटा-सा टुकड़ा बेचकर कर्ज से मुक्त हो सकते थे। सुख की जो ऊँची-से-ऊँची कल्पना उन्होंने की थी, उससे कहीं ऊँचे जा पहुंँचे थे। अभी तक उनका बंगला केवल लखनऊ में था। अब नैनीताल, मंसूरी और शिमला--तीनों स्थानों में एक-एक बँगला बनवाना लाज़िम हो गया। अब उन्हें यह शोभा नहीं देता कि इन स्थानों में जायें, तो होटलों में या किसी दूसरे राजा के बंगले में ठहरें। जब मूर्यप्रतापसिंह के बंगले इन सभी स्थानों में थे, तो राय साहब के लिए यह बड़ी लज्जा की बात थी कि उनके बँगले न हों। संयोग से बँगले बनवाने की जहमत न उठानी पड़ी। बने-बनाये बँगले सस्ते दामों में मिल गये। हरएक बॅगले के लिए माली, चौकीदार, कारिन्दा, खानमामा आदि भी रख लिये गये थे। और सबसे बड़े सौभाग्य की बात यह थी कि अबकी हिज़ मैजेस्टी के जन्म-दिन के अवसर पर उन्हें राजा की पदवी भी मिल गयी। अब उनकी महत्त्वाकांक्षा सम्पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गयी। उस दिन खूब जशन मनाया गया और इतनी शानदार दावत हुई कि पिछले सारे रेकार्ड टूट गये। जिस वक्त हिज़ एक्सेलेन्सी गवर्नर ने उन्हें पदवी प्रदान की, गर्व के साथ राज-भक्ति की ऐसी तरंग उनके मन में उठी कि उनका एक-एक रोम उससे प्लावित हो उठा। यह है जीवन ! नहीं, विद्रोहियों के फेर में पड़कर व्यर्थ बदनामी ली, जेल गये और अफ़सरों की नज़रों से गिर गये। जिस डी० एस० पी० ने उन्हें पिछली बार गिरफ्तार किया था, इस वक्त वह उनके सामने हाथ बाँधे खड़ा था और शायद अपने अपराध के लिए क्षमा मांग रहा था।

मगर जीवन की सबसे बड़ी विजय उन्हें उस वक्त हुई, जब उनके पुराने, परास्त शत्रु सूर्यप्रतापसिंह ने उनके बड़े लड़के रुद्रपालसिंह से अपनी कन्या के विवाह का सन्देशा भेजा। राय साहब को न मुक़दमा जीतने की इतनी खुशी हुई थी, न मिनिस्टर होने की। वह सारी बातें कल्पना में आती थीं; मगर यह बात तो आशातीत ही नहीं, कल्पनातीत थी। वही सूर्यप्रतापसिंह जो अभी कई महीने तक उन्हें अपने कुत्ते से भी नीचा समझता था, वह आज उनके लड़के से अपनी लड़की का विवाह करना चाहता था ! कितनी असम्भव बात ! रुद्रपाल इस समय एम० ए० में पढ़ता था, बड़ा निर्भीक, पक्का आदर्शवादी,