पृष्ठ:गो-दान.djvu/३२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२८ गोदान

के कारण पुरानी मर्यादाओं को तोड़ डालना चाहती थीं। कई युवतियाँ भी थीं, जो डिग्रियाँ ले चुकी थीं और विवाहित जीवन को आत्मसम्मान के लिए घातक समझकर नौकरियों की तलाश में थीं। उन्हीं में एक मिस सुलतान थीं, जो विलायत से बार-एट-ला होकर आयी थीं और यहाँ परदानशीन महिलाओं को कानूनी सलाह देने का व्यवसाय करती थीं। उन्हीं की सलाह से मीनाक्षी ने पति पर गुज़ारे का दावा किया। वह अब उसके घर में न रहना चाहती थी। गुज़ारे की मीनाक्षी को ज़रूरत न थी। मैके में वह बड़े आराम से रह सकती थी; मगर वह दिग्विजयसिंह के मुख में कालिख लगाकर यहाँ से जाना चाहती थी। दिग्विजयसिंह ने उस पर उलटा बदचलनी का आक्षेप लगाया। राय साहब ने इस कलह को शान्त करने की भरसक बहुत चेष्टा की; पर मीनाक्षी अब पति की सूरत भी नहीं देखना चाहती थी। यद्यपि दिग्विजयसिंह का दावा खारिज हो गया और मीनाक्षी ने उस पर गुज़ारे की डिग्री पायी; मगर यह अपमान उसके जिगर में चुभता रहा। वह अलग एक कोठी में रहती थी, और समप्टिवादी आन्दोलन में प्रमुख भाग लेती थी, पर वह जलन शान्त न होती थी।

एक दिन वह क्रोध में आकर हंटर लिये दिग्विजयसिंह के बंँगले पर पहुंँची। शोहदे जमा थे और वेश्या का नाच हो रहा था। उसने रणचंडी की भाँति पिशाचों की इस चंडाल चौकड़ी में पहुंँचकर तहलका मचा दिया। हंटर खा-खाकर लोग इधर-उधर भागने लगे। उसके तेज के सामने वह नीच शोहदे क्या टिकते; जब दिग्विजयसिह अकेले रह गये, तो उसने उन पर सड़ासड़ हंटर जमाने शुरू किये और इतना मारा कि कुंँवर साहब बेदम हो गये। वेश्या अभी तक कोने में दबकी खड़ी थी। अब उसका नम्बर आया। मीनाक्षी हंटर तानकर जमाना ही चाहती थी कि वेश्या उसके पैरों पर गिर पड़ी और रोकर बोली--दुलहिनजी, आज आप मेरी जान वख्श दें। मैं फिर कभी यहाँ न आऊँगी। मैं निरपराध हूँ।

मीनाक्षी ने उसकी ओर घृणा से देखकर कहा--हाँ, तू निरपराध है। जानती है न, मैं कौन हूँ ? चली जा। अब कभी यहाँ न आना। हम स्त्रियाँ भोग-विलास की चीजे है ही, तेरा कोई दोष नहीं !

वेश्या ने उसके चरणों पर सिर रखकर आवेश में कहा--परमात्मा आपको मुखी रखे। जैसा आपका नाम सुनती थी, वैसा ही पाया।

'सुखी रहने में तुम्हारा क्या आशय है ?'

'आप जो समझें महारानीजी !'

'नहीं, तुम बताओ।'

वेश्या के प्राण नखों में समा गये। कहाँ से कहाँ आशीर्वाद देने चली। जान वच गयी थी, चुपके से अपनी राह लेनी चाहिए थी, दुआ देने की सनक सवार हुई। अब कैसे जान बचे।

डरती-डरती बोली-- हुजूर का एकबाल बढ़े, नाम बढ़े।

मीनाक्षी मुस्करायी--हाँ, ठीक है।