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३४० गोदान

बहुत था। मारे बाग को पानी निकालकर सींचना, क्यारियों को गोड़ना, घास छीलना, गायों को चाग-पानी देना और दुहना। और जो मालिक इतना दयालु हो, उसके काम में काम-चोरी कैसे करे? यह एहसान उसे एक क्षण भी आराम से न बैठने देता, और जब मेहता खुद खुरपी लेकर घण्टों बाग में काम करते तो वह कैसे आराम करता? वह खुद मूखता था; पर बाग़ हरा हो रहा था।

मिस्टर मेहता को भी बालक मे स्नेह हो गया था। एक दिन मालती ने उसे गोद मे लेकर उनकी मॅछ उखड़वा दी थी। दुष्ट ने मूंँछों को ऐसा पकड़ा था कि समूल ही उखाड़ लेगा। मेहता की आँखों में आँसू भर आये थे।

मेहता ने बिगड़कर कहा था--बड़ा शैतान लौंडा है।

मालती ने उन्हें डांँटा था--तुम मूँछे साफ़ क्यों नहीं कर लेते ?

'मेरी मछे मुझे प्राणों मे प्रिय है।'

'अबकी पकड़ लेगा, तो उखाड़कर ही छोड़ेगा।'

'तो मैं टसके कान भी उखाड़ लूंँगा।'

मगल को उनकी मूँछे उखाड़ने में कोई खाम मज़ा आया था। वह खूब खिल-खिलाकर हंँसा था और मूंँछों को और जोर से ग्वीचा था; मगर मेहता को भी शायद मूँछे उखड़वाने में मजा आया था; क्योकि वह प्रायः दो एक बार रोज़ उसमे अपनी मूंँछों की रम्माकगी करा लिया करते थे।

इधर जब में मंगल को चेचक निकल आयी थी, मेहता को भी बड़ी चिन्ता हो गयी थी। अकमर कमरे में जाकर मगल को व्यथित आँखों से देखा करते। उसके कष्टों की कल्पना करके उनका कोमल हृदय हिल जाता था। उनके दौड़-धूप से वह अच्छा हो जाना, तो पथ्वी के उस छोर तक दौड़ लगाते; रुपए खर्च करने से अच्छा होता, तो चाहे भीख ही मांँगना पड़ता, वह उसे अच्छा करके ही रहते; लेकिन यहाँ कोई बस न था। उसे छूने भी उनके हाथ कांँपते थे। कहीं उसके आवले न टूट जाय। मालती कितने कोमल हाथों से उसे उठाती है, कन्धे पर उठाकर कमरे में टहलाती है और कितने स्नेह से उसे बहलाकर दूध पिलाती है, यह वात्सल्य मालती को उनकी दृष्टि में न जाने कितना ऊंँचा उठा देता है। मालती केवल रमणी नहीं है, माता है और ऐसी-वैसी माता नहीं. सच्चे अर्थों में देवी और माता और जीवन देनेवाली, जो पराये बालक को भी अपना समझ सकती है, जैसे उसने मातापन का सदैव संचय किया हो और आज दोनों हाथों से उसे लुटा रही हो। उसके अंग-अंग से मातापन फूटा पड़ता था, मानो यही उसका यथार्थ रूप हो, यह हाव-भाव, यह शौक-सिंगार उसके मातापन के आवरण-मात्र हों, जिसमें उस विभूति की रक्षा होती रहे।

रात को एक बज गया था। मंगल का रोना सुनकर मेहता चौंक पडे़। सोचा, बेचारी मालती आधी रात तक तो जागती रही होगी, इस वक्त उसे उठने में कितना कष्ट होगा; अगर द्वार खुला हो तो मैं ही बच्चे को चुप करा दूंँ। तुरन्त उठकर उस कमरे के द्वार पर आये और शीशे से अन्दर झांँका। मालती बच्चे को गोद में लिये बैठी थी