पृष्ठ:गो-दान.djvu/३४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गोदान ३४७

किया और बहुत से मन्त्र और श्लोक पढ़े गये। मातादीन को शुद्ध गोबर और गोमूत्र खाना-पीना पड़ा। गोबर से उसका मन पवित्र हो गया। मूत्र से उसकी आत्मा में अशुचिता के कीटाणु मर गये।

लेकिन एक तरह से इस प्रायश्चित्त ने उसे सचमुच पवित्र कर दिया। हवन के प्रचण्ड अग्नि-कुण्ड में उसकी मानवता निखर गयी और हवन की ज्वाला के प्रकाश से उसने धर्म-स्तम्भों को अच्छी तरह परख लिया। उस दिन से उसे धर्म के नाम से चिढ़ हो गयी। उसने जनेऊ उतार फेंका और पुरोहिती को गंगा में डुबा दिया। अब वह पक्का खेतिहर था। उसने यह भी देखा कि यद्यपि विद्वानों ने उसका ब्राह्मणत्व स्वीकार कर लिया; लेकिन जनता अब भी उसके हाथ का पानी नहीं पीती, उससे मुहूर्त पूछती है, साइत और लग्न का विचार करवाती है, उसे पर्व के दिन दान भी दे देती है; पर उसमे अपने वरतन नहीं छुलाती।

जिस दिन सिलिया के बालक का जन्म हुआ, उसने दूनी मात्रा में भंग पी, और गर्व से जैसे उसकी छाती तन गयी, और उँगलियाँ बार-बार मूंँछों पर पड़ने लगीं। बच्चा कैसा होगा? उसी के जैसा ? कैसे देखे ? उसका मन मसोसकर रह गया।

तीसरे दिन रूपा खेत में उससे मिली। उसने पूछा--रुपिया, तूने सिलिया का लड़का देखा?

रुपिया बोली--देखा क्यों नहीं। लाल-लाल है, खूब मोटा, बड़ी-बड़ी आँखें हैं, सिर में झबराले बाल हैं, टुकुर-टुकुर ताकता है।

मातादीन के हृदय में जैसे वह बालक आ बैठा था, और हाथ-पाँव फेंक रहा था। उसकी आँखों में नशा-सा छा गया। उसने उस किशोरी रूपा को गोद में उठा लिया, फिर कन्धे पर बिठा लिया, फिर उतारकर उसके कपोलों को चूम लिया।

रूपा बाल सँभालती हुई ढीठ होकर बोली--चलो, मैं तुमको दूर से दिखा दूंँ। ओसारे में ही तो है। सिलिया बहन न जाने क्यों हरदम रोती रहती है।

मातादीन ने मुंँह फेर लिया। उसकी आँखें सजल हो आयी थीं, और ओठ काँप रहे थे।

उस रात को जब सारा गाँव सो गया और पेड़ अन्धकार में डूब गये, तो वह सिलिया के द्वार पर आया और सम्पूर्ण प्राणों से बालक का रोना सुना, जिसमें सारी दुनिया का संगीत, आनन्द और माधुर्य भरा हुआ था।

सिलिया बच्चे को होरी के घर में खटोले पर मुलाकर मजूरी करने चली जाती। मातादीन किसी-न-किसी बहाने से होरी के घर आता और कनखियों से बच्चे को देखकर अपना कलेजा और आँखें और प्राण शीतल करता।

धनिया मुस्करा कर कहती--लजाते क्यों हो, गोद में ले लो, प्यार करो, कैसा काठ का कलेजा है तुम्हारा। बिलकुल तुमको पड़ा है।

मातादीन एक-दो रुपए सिलिया के लिए फेंककर बाहर निकल आता। बालक के साथ उसकी आत्मा भी बढ़ रही थी, खिल रही थी, चमक रही थी। अब उसके