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पृष्ठ:गो-दान.djvu/४१

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गोदान
३९
 

<gap>रूपा ने पिता के गले में हाथ डालकर कहा--दूध भी मै ही दुहुँगी।

'हाँ-हाँ,तू न दुहेगी तो और कौन दुहेगा?'

'वह मेरी गाय होगी।'

'हाँ,सोलहो आने तेरी।'

रूपा प्रसन्न होकर अपनी विजय का शुभ समाचार पराजिता सोना को सुनाने चली गयी। गाय मेरी होगी,उसका दूध मैं दुहँगी,उसका गोबर मैं पाचुंगी,तुझे कुछ न मिलेगा।

(सोना उम्र से किशोरी, देह के गठन में युवती और बुद्धि से वालिका थी,जैसे उसका यौवन उसे आगे खीचता था, वालपन पीछे। कुछ बातों में इतनी चतुर कि ग्रेजुएट युवतियों को पढ़ाये,कुछ बातों में इतनी अल्हड़ कि शिशुओं से भीपीछे। लम्बा,रूखा,किन्तु प्रसन्न मुख ठोड़ी नीचे को खिचीहुई,आँखों में एक प्रकार की तृप्ति,न केशों में तेल,न आँखों में काजल,न देह पर कोई आभूपण,जैसे गृहस्थी के भार ने यौवन को दबाकर बौना कर दिया हो।

मिर को एक झटका देकर बोली-जा तू गोवर पाथ। जब तू दूध दुहकर रखेगी तो मैं पी जाऊँगी।

{{Gap}]'मैं दूध की हाँड़ी ताले में बन्द करके रसूंगी।'

'मै ताला तोड़कर दूध निकाल लाऊँगी।'

यह कहती हुई वह बाग की तरफ चल दी। आम गदरा गये थे। हवा के झोंकों से एकाध ज़मीन पर गिर पड़ते थे,लू के मारे चुचके, पीले; लेकिन वाल-वृन्द उन्हें टपके समझकर बाग को घेरे रहते थे। रूपा भी बहन के पीछे हो ली। जो काम सोना करे,वह रूपा ज़रूर करेगी। सोना के विवाह की बातचीत हो रही थी,रूपा के विवाह की कोई चर्चा नहीं करता;इसलिए वह स्वयं अपने विवाह के लिए आग्रह करती है। उसका दूल्हा कैसा होगा,क्या-क्या लायेगा, उसे कैसे रखेगा,उसे क्या खिलायेगा, क्या पहनायेगा,इसका वह बड़ा विशद वर्णन करती, जिसे सुनकर कदाचित् कोई वालक उससे विवाह करने पर राजी न होता।

साँझ हो रही थी। होरी ऐसा अलसाया कि ऊख गोड़ने न जा सका। बैलों को नाँद में लगाया,सानी-खली दी और एक चिलम भरकर पीने लगा। इस फसल में सब कुछ खलिहान में तौल देने पर भी अभी उस पर कोई तीन सौ कर्ज था,जिस पर कोई सौ रुपए सूद के बढ़ते जाते थे। (मँगरू साह से आज पाँच साल हुए बैल के लिए साठ रुपए लिए थे,उसमें साठ दे चुका था;पर वह साठ रुपए ज्यों-के-त्यों बने हुए थे। दातादीन पण्डित से तीस रुपए लेकर आलू बोये थे। आलू तो चोर खोद ले गये,और उस तीस के इन तीन बरसों में सौ हो गये थे। दुलारी विधवा सहुआइन थी,जो गाँव में नोन तेल तमाखू की दूकान रखे हुए थी। बटवारे के समय उससे चालीस रुपए लेकर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपए हो गये थे; क्योंकि आने रुपए का ब्याज था। लगान के भी अभी पच्चीस रुपए बाकी पड़े हुए थे और दशहरे के दिन शगुन के रुपयों का भी कोई प्रबन्ध करना था। बाँसों के रुपए बड़े अच्छे समय पर मिल गये। शगुन की समस्या हल हो