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गोदान
६९
 

सब लोगों ने कहक़हा मारा। मिस्टर मेहता जैसे जमीन में गड़ गये।

'आक्सफोर्ड में मेरे फ़िलासफ़ी के प्रोफेसर मिस्टर हसबेंड थे...'

खन्ना ने टोका--नाम तो निराला है।

'जी हाँ, और थे क्वारे....'

'मिस्टर मेहता भी तो क्वारे हैं....'

'यह रोग सभी फिलासफ़रों को होता है।'

{{Gap}]अब मेहता को अवसर मिला। बोले-आप भी तो इसी मरज में गिरफ्तार हैं?

'मैने प्रतिज्ञा की है किसी फिलासफ़र से शादी करूँगी और यह वर्ग शादी के नाम से घबराता है।हसबेंड साहब तो स्त्री को देखकर घर में छिप जाते थे। उनके शिष्यों में कई लड़कियाँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पूछने के लिए उनके आफिस में चली जाती थी तो आप ऐसे घबड़ा जाते जैसे कोई शेर आ गया हो। हम लोग उन्हें खूब छेड़ा करते थे,मगर थे बेचारे सरल-हृदय। कई हजार की आमदनी थी,पर मैंने उन्हें हमेशा एक ही सूट पहने देखा। उनकी एक विधवा बहन थी। वही उनके घर का सारा प्रबन्ध करती थीं। मिस्टर हसबेंड को तो खाने की फिक्र ही न रहती थी। मिलनेवालों के डर से अपने कमरे का द्वार बन्द करके लिखा-पढ़ी करते थे। भोजन का समय आ जाता,तो उनकी बहन आहिस्ता से भीतर के द्वार से उनके पास जाकर किताब बन्द कर देती थीं,तब उन्हें मालूम होता कि खाने का समय हो गया। रात को भी भोजन का समय बँधा हुआ था। उनकी बहन कमरे की बत्ती बझा दिया करती थीं। एक दिन बहन ने किताब बन्द करना चाहा,तो आपने पुस्तक को दोनों हाथों से दवा लिया और बहन-भाई में जोर-आजमाई होने लगी। आखिर बहन उनकी पहियेदार कुर्सी को खींच कर भोजन के कमरे में लायी।'

राय साहब बोले--मगर मेहता साहब तो बड़े खुशमिज़ाज और मिलनसार हैं,नहीं इस हंगामे में क्यों आते।

'तो आप फ़िलासफ़र न होंगे। जब अपनी चिन्ताओं से हमारे सिर में दर्द होने लगता है,तो विश्व की चिन्ता सिर पर लादकर कोई कैसे प्रसन्न रह सकता है!'

उधर सम्पादकजी श्रीमती खन्ना से अपनी आर्थिक कठिनाइयों की कथा कह रहे थे--बस यों समझिए श्रीमतीजी,कि सम्पादक का जीवन एक दीर्घ विलाप है,जिसे सुनकर लोग दया करने के बदले कानों पर हाथ रख लेते हैं। बेचारा न अपना उपकार कर सके न औरों का। पब्लिक उससे आशा तो यह रखती है कि हरएक आन्दोलन में वह सबसे आगे रहे,जेल जाय,मार खाय,घर के माल-असबाब की कुर्की कराये,यह उसका धर्म समझा जाता है,लेकिन उसकी कठिनाइयों की ओर किसी का ध्यान नहीं। हो तो वह सब कुछ। उसे हरएक विद्या,हरएक कला में पारंगत होना चाहिए;लेकिन उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं। आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं। आपकी सेवा करने का जो थोड़ा-सा सौभाग्य मुझे मिल सकता है,उससे क्यों मुझे वंचित रखती हैं?