युवती ने प्रसन्न मुख से कहा--मैने तुम्हें तैरते आते देखा, तो दौड़ी। शिकार खेलने आये होंगे?
'हाँ,आये तो थे शिकार ही खेलने;मगर दोपहर हो गया और यही चिड़िया मिली है।'
'तेंदुआ मारना चाहो,तो मैं उसका ठौर दिखा दूंँ। रात को यहाँ रोज पानी पीने आता है। कभी-कभी दोपहर में भी आ जाता है।'
फिर ज़रा सकुचाकर सिर झुकाये हुए बोली--उसकी खाल हमें देनी पड़ेगी। चलो मेरे द्वार पर। वहाँ पीपल की छाया है। यहाँ धूप में कब तक खड़े रहोगे। कपड़े भी तो गीले हो गये हैं।
मेहता ने उसकी देह में चिपकी हुई गीली साड़ी की ओर देखकर कहा--तुम्हारे कपड़े भी तो गीले हैं।
उसने लापरवाही से कहा--ऊँह हमारा क्या, हम तो जंगल के हैं। दिन-दिन भर धूप और पानी में खड़े रहते हैं। तुम थोड़े ही रह सकते हो।
लड़की कितनी समझदार है और बिलकुल गॅवार।
'तुम खाल लेकर क्या करोगी?'
'हमारे दादा बाजार में बेचते हैं। यही तो हमारा काम है।'
'लेकिन दोपहरी यहाँ काटें,तो तुम खिलाओगी क्या?'
युवती ने लजाते हुए कहा--तुम्हारे खाने लायक हमारे घर में क्या है। मके की रोटियाँ खाओ जो धरी है। चिड़िये का सालन पका दूंँगी। तुम बताते जाना जैसे बनाना हो। थोड़ा-सा दूध भी है। हमारी गैया को एक बार तेंदुए ने घेरा था। उसे सींगों से भगाकर भाग आयी,तब से तेंदुआ उससे डरता है।
'लेकिन मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ एक औरत भी है।'
'तुम्हारी घरवाली होगी?'
'नहीं,घरवाली तो अभी नहीं है,जान-पहचान की है।'
'तो मैं दौड़कर उनको बुला लाती हूँ। तुम चलकर छाँह में बैठो।'
'नही-नहीं,मैं बुला लाता हूँ।'
'तुम थक गये होगे। शहर का रहैया जंगल में काहे आते होंगे। हम तो जंगली आदमी हैं। किनारे ही तो खड़ी होंगी।'
जब तक मेहता कुछ बोलें,वह हवा हो गयी। मेहता ऊपर चढ़कर पीपल की छाँह में बैठे। इग स्वच्छन्द जीवन से उनके मन में अनुराग उत्पन्न हुआ। सामने की पर्वतमाला दर्शन-तत्त्व की भाँति अगम्य और अत्यन्त फैली हुई,मानो ज्ञान का विस्तार कर रही हो,मानो आत्मा उस ज्ञान को,उस प्रकाश को,उस अगम्यता को,उसके प्रत्यक्ष विराट् रूप मे देख रही हो। दूर के एक बहुत ऊँचे शिखर पर एक छोटा-सा मन्दिर था,जो उम अगम्यता में बुद्धि की भाँति ऊँचा,पर खोया हुआ-सा खड़ा था,मानो वहाँ तक पर मारकर पक्षी विश्राम लेना चाहता है और कहीं स्थान नहीं पाता।
मेहता इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि युवती मिस मालती को साथ लिये आ