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आधी रात का समय है। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। राजा वीरेन्द्रसिंह के लश्कर में पहरा देने वालों के सिवाय सभी आराम की नींद सोये हुए हैं। हाँ, थोड़े से फौजी आदमियों का सोना कुछ विचित्र ही ढंग का है जिन्हें न तो जागा ही कह सकते हैं और न सोने वालों में ही गिन सकते हैं, क्योंकि ये लोग, जो गिनती में एक हजार से ज्यादा न होंगे, लड़ाई की पोशाक पहने और उम्दे हर्वे बदन पर लगाये लेटे हुए हैं। जाड़े का मौसम है मगर कोई ऐसा कपड़ा, जो वखूबी सर्दी को दूर कर सके, ओढ़े हुए नहीं हैं, इसलिए तेज हवा के साथ मिली हुई सर्दी उन्हें नींद में मस्त होने नहीं देती।
राजा वीरेन्द्रसिंह के खेमे की चौकसी फतहसिंह कर रहे हैं, खुद तो दरवाजे के आगे एक चौकी पर बैठे हुए हैं, मगर मातहत सिपाही खेमे के चारों तरफ नंगी तलवारें लिए घूम रहे हैं। कुँअर इन्द्रजीतसिंह के खेमे की चौकसी कंचनसिंह और आनन्दसिंह के खेमे की हिफाजत नाहरसिंह सिपाहियों के साथ कर रहे हैं।
जब आधी रात से ज्यादा जा चुकी, एक आदमी कुँअर इन्द्रजीतसिंह के खेमे के दरवाजे पर आया और कंचनसिंह को सलाम करके पास खड़ा हो गया। यह आदमी लम्बे कद का और मजबूत मालम होता था, सिर पर मुंडासा बाँधे और ऊपर से एक काश्मीरी स्याह चोगा डाले हुए था।
कंचनसिंह––तुम कौन हो और क्यों आये हो?
आदमी––मैं रोहतासगढ़ किले का रहने वाला हूँ और किशोरीजी का सन्देशा लेकर आया हूँ।
कंचनसिंह––क्या सन्देशा है?
आदमी––हुक्म है कि कुमार के सिवाय और किसी से न कहूँ।
कंचनसिंह––कुमार तो इस समय सोये हुए हैं!
आदमी––अगर आप मेरा आना जरूरी समझते हों, तो मुझे खेमे के अन्दर ले चलिए या कुमार को उठाकर खबर कर दीजिये।
कंचनसिंह––(कुछ सोचकर) बेशक ऐसी हालत में कुमार को जगाना ही पड़ेगा। कहो, तुम्हारा नाम क्या है?
आदमी––मैं अपना नाम नहीं बता सकता, मगर कुमार मुझे अच्छी तरह जानते हैं। आप अपने साथ मुझे खेमे के अन्दर ले चलिए। आँख खुलते ही मुझे पहचान लेंगे, आपको कुछ कहने की जरूरत न पड़ेगी!
कंचनसिंह उस आदमी को लेकर खेमे के अन्दर घुसा। आगे-आगे कंचनसिंह और पीछे-पीछे वह आदमी। जब दोनों खेमे के मध्य में पहुँचे तो उस आदमी ने अपने कपड़े के अन्दर से एक भुजाली निकालकर धोखे में पड़े हुए बेचारे कंचनसिंह की गरदन पर पीछे से इस जोर से मारी कि खट से सिर कटकर दूर जा गिरा, बेचारे के मुँह से