पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/२०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
196
 

थी) और एक चुटकी रामानन्द की नाक में साँस के साथ चढ़ा दी। फिर निश्चिन्त होकर बैठे। अब सिवा तेजसिंह के दूसरे का बनाया लखलखा उसे कब होश में ला सकता है (हाँ, दो-एक रोज तक पड़े रहने पर वह आप से आप चाहे भले ही होश में आ जाए।

दम-भर में दारोगा साहब लखलखे की डिबिया लिये आ पहुँचे। तेजसिंह ने कहा, "बस, आप ही सुँघाइये और देखिये कि इस लखलखे से कुछ काम निकलता है या नहीं।"

दारोगा साहब ने लखलखे की डिबिया बेहोश रामानन्द की नाक से लगाई, पर क्या असर होना था। लाचार तेजसिंह का मुँह देखने लगे।

तेजसिंह––क्यों व्यर्थ मेहनत करते हैं, मैं पहले ही कह चुका हूँ कि इस लखलखे से काम नहीं चलेगा। चलिए, महाराज के पास चलें। इसे यों ही रहने दीजिये, अपना लखलखा लेकर फिर लौटेंगे तो काम चलेगा।

दारोगा––जैसी मर्जी, इस लखलखे से तो काम नहीं चलता।

दारोगा साहब ने रोजनामचे की किताब बगल में दाबी और तालियों का झब्बा और लालटेन हाथ में लेकर रवाना हुए। एक कोठरी में घुसकर ने दूसरा दरवाजा खोला। ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ नजर आईं। ये दोनों ऊपर चढ़ गये और दो-तीन कोठरियों से घुसते हुए एक सुरंग में पहुँचे। दूर तक चले जाने के बाद इनका सिर छत से अड़ा। दारोगा ने एक सूराख में ताली लगाई और खटका दबाया। एक पत्थर का टुकड़ा अलग हो गया और ये दोनों बाहर निकले। यहाँ तेजसिंह ने अपने को एक कब्रिस्तान में पाया।

इस सन्तति के तीसरे भाग के चौदहवें व्यान में हम इस कब्रिस्तान का हाल लिख चुके हैं। इसी राह से कुँअर आनन्दसिंह और तारासिंह उस तहखाने में गये थे इस समय हम जो हाल लिख रहे हैं, वह कुँअर आनन्दसिंह के तहखाने में जाने से पहले का है। सिलसिला मिलाने के लिए फिर पीछे की तरफ लौटना पड़ा। तहखाने के हर एक दरवाजे में पहले ताला लगा रहता था, मगर जब से तेजसिंह ने इसे अपने कब्जे में कर लिया (जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा) तब से ताला लगाना बन्द हो गया, केवल खटकों पर ही कार्रवाई रह गई।

तेजसिंह ने चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखा और मालूम किया कि इस जंगल में जासूसी करते हुए कई दफे आ चुके हैं और इस कब्रिस्तान में भी पहुँच चुके हैं, मगर जानते नहीं थे कि यह कब्रिस्तान क्या है और किस मतलब से बना हुआ है। अब तेजसिंह ने सोच लिया कि हमारा काम चल गया, दारोगा साहब को इसी जगह फँसाना चाहिए, जाने न पावें।

तेजसिंह––दारोगा साहब, हकीकत में तुम बड़े ही जूतीखोर हो।

दारोगा––(ताज्जुब से तेजसिंह का मुँह देख के) मैंने क्या कसूर किया है जो आप गाली दे रहे हैं? ऐसा तो कभी नहीं हुआ था!

तेजसिंह––फिर मेरे सामने गुर्राता है! कान पकड़ के उखाड़ लूँगा!

च॰ स॰-1-12