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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/३६

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आनन्दसिंह-(चौंककर) हैं! क्या तुम मुसलमान हो जो खुदा की कसम खाती हो?

औरत-(हँसकर) हाँ, क्या मुसलमान बुरे होते हैं?

आनन्दसिंह यह कहकर उठ खड़े हुए–"अफसोस अगर तुम मुसलमान न होती तो मैं तुम्हें जी-जान से प्यार करता, मगर एक औरत के लिए अपना मजहब नहीं बिगाड़ सकता।"

औरत—(हाथ थामकर) देखो बेमुरौवती मत करो! मैं सच कहती हूँ कि अब तुम्हारी जुदाई मुझसे न सही जायगी!

आनन्दसिंह-मैं भी सच कहता हूँ कि मुझसे किसी तरह की उम्मीद मत रखना।

औरत-(भौहें सिकोड़कर) क्या यह बात दिल से कहते हो?

आनन्दसिंह–हाँ, बल्कि कसम खाकर!

औरत-पछताओगे और मुझ-सी चाहने वाली कभी न पाओगे।

आनन्दसिंह—(अपना हाथ छुड़ाकर) लानत है ऐसी चाहत पर!

औरत-तो तुम यहाँ से चले जाओगे?

आनन्दसिंह-जरूर!

औरत-मुमकिन नहीं।

आनन्दसिंह ह—क्या मजाल कि तुम मुझको रोको।

औरत-ऐसा खयाल भी न करना।

"देखें, मुझे कौन रोकता है!" कहकर आनन्दसिंह उस कमरे के बाहर हुए और उसी कमरे की एक खिड़की, जो दीवार में लगी हुई थी, खोल वे औरतें वहाँ से निकल गयीं।

आनन्दसिंह इस उम्मीद में चारों तरफ घूमने लगे कि कहीं रास्ता मिले तो बाहर हो जायें मगर उनकी उम्मीद किसी तरह पूरी न हुई।

यह मकान बहुत लम्बा-चौड़ा न था। सिवाय इस कमरे और एक सहन के और कोई जगह इसमें न थी। चारों तरफ ऊँची-ऊँची दीवारों के सिवाय बाहर जाने के लिए कहीं कोई दरवाजा न था। हर तरह से लाचार और दुखी हो फिर उसी पलंग पर आ लेटे और सोचने लगे-

"अब क्या करना चाहिए! इस कम्बख्त से किस तरह जान बचे? यह तो हो ही नहीं सकता कि मैं इसे चाहूँ या प्यार करूँ। राम-राम, मुसलमानिन और इश्क! यह तो सपने में भी नहीं होने का। तब फिर क्या करूँ? लाचारी है, जब किसी तरह छुट्टी न देखूगा तो इस खंजर से जो मेरी कमर में है अपनी जान दे दूंगा।"

कमर से खंजर निकालना चाहा, देखा कमर खाली है। फिर सोचने लगे-

"गजब हो गया, इस हरामजादी ने तो मुझे किसी लायक न रखा। अगर कोई दुश्मन आ जाय तो मैं क्या कर सकूँ? बेहया अगर मेरे पास आवे तो गला दबाकर मार डालूँ। नहीं, नहीं, वीर-पुत्र होकर स्त्री पर हाथ उठाना! यह मुझसे न होगा, तब क्या