भैरोंसिंह-ईश्वर करे, इसी तरह आपकी धर्म में बुद्धि बनी रहे, अच्छा जाइये।
भीममेन ने अपने घर का रास्ता लिया और हमारे चोखे ऐयारों ने चुनार की सड़क नापी।
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अब हम अपने पाठकों को फिर उसी खोह में ले चलते हैं जिसमें कुँअर आनन्दसिंह को बेहोश छोड़ आये हैं अथवा जिस खोह में अपनी जान बचानेवाले सिपाही के साथ पहुँच कर उन्होंने एक औरत को छुरे से लाश काटते देखा था और योगिनी ने पहुँच कर सब को बेहोश कर दिया था।
थोड़ी देर के बाद आनन्दसिंह को छोड़ योगिनी बाकी सब लोगों को कुछ सुँघा कर होश में लाई। बेहोश आनन्दसिंह उठाकर एक किनारे रख दिए गए और फिर वही काम अर्थात् लटकते हुए आदमी को छुरे से काट-काट कर पूछना कि 'इन्द्रजीतसिंह के बारे में जो कुछ जानता है बता' जारी हुआ। सिपाही ने भी उन लोगों का साथ दिया। मगर वह आदमी भी कितना जिद्दी था! बदन के टुकड़े-टुकड़े हो गए, मगर जब तक होश में रहा यही कहता गया कि हम कुछ नहीं जानते। हब्शी ने पहले ही से कब्र खोद रखी थी, दम निकल जाने पर वह आदमी उसी में गाड़ दिया गया।
इस काम से छुट्टी पा योगिनी ने सिपाही की तरफ देख कर कहा, "बाहर जंगल से लकड़ी काट काम चलाने लायक एक छोटी-सी डोली बना लो, उस पर आनन्दसिंह को रख तुम और हब्शी मिल कर उठा ले जाओ, चुनार के किले के पास इनको रख देना जिसमें होश आने पर अपने पार पहुँच जायँ, तकलीफ न हो, बल्कि होश में लाने की तरकीब करके तब तुम इनसे अलग होना और जहाँ जी चाहे, चले जाना। हम लोगों से अगर मिलने की जरूरत हो तो इसो जगह आना।"
सिपाही-मेरी भी यही राय थी। आनन्दसिंह को तकलीफ क्यों होने लगी; क्या मुझको इसका खयाल नहीं है!
योगिनी-क्यों नहीं, बल्कि मुझसे ज्यादे होगा। अच्छा, तुम जाओ, जिस तरह बने इस काम को कर लो, हम लोग अब अपने काम पर जाती हैं। (दूसरी औरत की तरफ देखकर जिसने छुरी से उस लाश को काटा था) चलो बहिन, चलें, इस छोकरी को इसी जगह छोड़ दो, मजे में रहेगी, फिर पूछा जायगा।
इन दोनों औरतों का अभी वहुत-कुछ हाल हमें लिखना है इसलिए जब तक इन दोनों का असल भेद और नाम न मालूम हो जाय, तब तक पाटकों के समझने के लिए कोई फर्जी नाम जरूर रख देना चाहिए। एक का नाम तो योगिनी रख ही दिया गया, दूसरी का वनचरी समझ लीजिए। योगिनी और वनचरी दोनों खोह के बाहर निकली और कुछ दक्खिन झुकते हुए पूरब का रास्ता लिया। इस समय रात बीत चुकी -