पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/८०

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का शृंगार मिटते देख उनकी तरफदार खुशबू से न रहा गया, वह झट फूलों से अलग हो सुबह की ठण्डी हवा से उलझ पड़ी और इधर-उधर फैल धूम मचाना शुरू कर दिया। अपनी फरियाद सुनाने के लिए उन नौजवानों के दिमागों में घुस-घुस कर उन्हें उठाने की फिक्र करने लगी जो रात भर जाग-जाग कर इस समय खूबसूरत पलंगड़ियों पर सुस्त पड़ रहे थे। जब उन्होंने कुछ न सुना और करवट बदल कर रह गये तो मालियों को जा घेरा। झट उठ बैठे और कमर कस कर उस जगह पहुँचे जहाँ फूलों और उमंग भरे हवा के झपेटों से कहा-सुनी हो रही थी। कम्बख्त छोटे लोगों का यह दिमाग कहाँ कि ऐसों का फैसला करें, बस फूलों को तोड़-तोड़ कर चंगेर भरने लगे। चलो छुट्टी हुई, न रहे बाँस न बाजे बाँसुरी। क्या अच्छा झगड़ा मिटाया है! इसके बदले में वे बड़े-बड़े दरख्त खुश हो हवा की मदद से झुक झुक कर मालियों को सलाम करने लगे जिनकी टहनियों में एक भी फूल दिखाई नहीं देता था। ऐसा क्यों न करें? उनमें था ही क्या जो दूसरों को महक देते, अपनी सूरत सभी को भाती है और अपना-सा होते देख सभी खुश होते हैं।

लीजिए उन परीजमालों ने भी पलंग का पीछा छोड़ा और उठते ही आईने केमुकाबिल हो बैठी जिनके बनाव को चाहने वालों ने रात भर में विथोर कर रख दिया था। झटपट अपनी सम्बुली जुल्फों को सुलझा, माहताबी चेहरों को गुलाबजल से साफ कर, अलबेली चाल से अठखेलियाँ करतीं, चम्पई दुपट्टे सँभालती, रविशों पर घूमने और फूलों के मुकाबले में रुक-रुक कर पूछने लगी कि 'कहिये, आप अच्छे या?' हम जब जवाब न पाया तो हाथ बढ़ा तोड़ लिया और बालियों में झुमकी की जगह रख आगे बढ़ीं। गुलाब की पटरी तक पहुंची थीं कि काँटों ने आँचल पकड़ा और इशारे से कहा, "जरा ठहर जाइए, आपके इस तरह लापरवाही से जाने से उलझन होती है, और नहीं तो चार आँखें ही करती और आँसू पोंछती जाइए!"

जाने दीजिए ये सब घमण्डी हैं। हमें तो कुछ उन लोगों की कुलबुलाहट भली मालूम होती है जो सुबह होने के दो घण्टे पहले ही उठ, हाथ-मुँह धो, जरूरी कामों से छुट्टी पा बगल में धोती दबा गंगाजी की तरफ लपके जाते हैं और वहाँ पहुँच स्नान कर, भस्म का चन्दन लगा, पटरों पर बैठ संध्या करते-करते सुबह के सुहावने समय का आनन्द पतित-पावनी श्रीगंगाजी की पाप-नाशिनी तरंगों में ले रहे हैं। इधर गुप्ती में घुसी उँगलियों ने प्रेमानन्द में मग्न मनराज की आज्ञा से गिरिजापति का नाम ले एक दाना पीछे हटाया और उधर तरनतारिणी भागवती जाह्नवी की लहरें तख्तों ही से छू-छू कर दस-बीस जन्म का पाप बहा ले गईं। सुगन्धित हवा के झपेटे कहते फिरते हैं-"जरा ठहर जाइये, अर्घा न उठाइये, अभी भगवान् सूर्यदेव के दर्शन देर में होंगे, तब तक आप कमल के फूलों को खोल कर इस तरह पर श्रीगंगाजी को चढ़ाइये कि लड़ी टूटने न पावे, फिर देखिये, देवता उसे खुद-ब-खुद मालाकार बना देते हैं या नहीं!"

ये सब तो सत्पुरुषों के काम हैं जो यहाँ भी आनन्द ले रहे हैं और वहाँ भी मजा लूटेंगे। आप जरा मेरे साथ चल कर उन दो दिलजलों की सूरत देखिये जो रात भर जागते और इधर-उधर दौड़ते रहे हैं और सुबह के सुहावने समय में एक पहाड़ की चोटी पर चढ़ चारों तरफ देखते हुए सोच रहे हैं कि किधर जायँ, क्या करें? चाहे वे