पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/१५१

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के अन्दर से एक आदमी निकला और पूरब की तरफ रवाना हुआ। मैं झटपट पेड़ से उतरा और पैर दबाता हुआ उसके पीछे-पीछे जाने लगा, इसलिए उसे मेरे आने की आहट कुछ भी मालूम न हुई। उस आदमी के हाथ में एक लिफाफा कपड़े का था। उस लिफाफे की सूरत ठीक उस खलीते की तरह थी जैसा प्राय: राजे और बड़े जमींदार लोग राजों-महाराजों के यहाँ चिट्ठी भेजते समय लिफाफे की जगह काम में लाते हैं। यकायक मेरे जी में आया कि किसी तरह यह लिफाफा इसके हाथ से ले लेना चाहिए, इससे मेरा मतलब कुछ न कुछ जरूर निकलेगा।

वह लिफाफा अंधेरी रात के सबब मुझे दिखाई न देता मगर राह चलते-चलते वह एक ऐसी दूकान के पास से होकर निकला जो बाँस की जालीदार टट्टी से बन्द थी मगर भीतर जलते हुए चिराग की रोशनी बाहर सड़क पर आने-जाने वाले के ऊपर बखूबी पड़ती थी। उसी रोशनी ने मुझे दिखा दिया कि इसके हाथ एक बड़ा लिफाफा मौजूद है। मैंने उसके हाथ से किसी तरह लिफाफा ले लेने के बारे में अपनी राय पक्की कर ली और कदम बढ़ा कर उसके पास जा पहुँचा। मैंने उसे धोखे में इस जोर से धक्का दिया कि वह किसी तरह सम्हल न सका और मुँह के बल जमीन पर गिर पड़ा। लिफाफा उसके हाथ से छटक कर दूर जा रहा जिसे मैंने फुर्ती से उठा लिया और वहाँ से भागा। जहाँ तक हो सका मैंने भागने में तेजी की। मुझे मालूम हुआ कि वह आदमी भी उठ कर मुझे पकड़ने के लिए दौड़ा पर मुझे पा न सका। गलियों में घूमता और दौड़ता हुआ मैं अपने घर पहुँचा और दरवाजे पर खड़ा होकर दम लेने लगा। उस समय मेरे दरवाजे पर रामधनीसिंह नामी मेरा एक सिपाही पहरा दे रहा था। यह सिपाही नाटे कद का बहुत मजबूत और चालाक था, थोड़े ही दिनों से चौकीदारी के काम पर मेरे बाप ने इसे नौकर रक्खा था।

मुझे उम्मीद थी कि रामधनीसिंह दौड़ते हुए आने का कारण मुझसे पूछेगा मगर उसने कुछ भी न पूछा। दरवाजा खुलवा कर मैं मकान के अन्दर गया और दरवाजा बन्द करके अपने कमरे में पहुँचा। शमादान अभी तक जल रहा था। उस लिफाफे को खोलने के लिए मेरा जी बेचैन हो रहा था, आखिर शमादान के पास आकर लिफाफा खोला। उस लिफाफे में एक चिट्ठी और लोहे की एक ताली थी। वह ताली विचित्र ढंग की थी, उसमें छोटे-छोटे कई छेद और पत्तियाँ बनी हुई थीं, वह ताली जेब में रख लेने के बाद मैं चिट्ठी पढ़ने लगा, यह लिखा हुआ था––"श्री 108 मनोरमाजी की सेवा में––

"महीनों की मेहनत आज सफल हुई। जिस काम पर आपने मुझे तैनात किया था वह ईश्वर की कृपा से पूरा हुआ। रिक्तगन्थ मेरे हाथ लगा। आपने लिखा था कि––'हारीत'[१] सप्ताह में मैं रोहतासगढ़ के तिलिस्मी तहखाने में रहूँगी, इस बीच में यदि रिक्तगन्थ (खून से लिखी हुई किताब) मिल जाय तो उसी तहखाने के बलिमण्डप में मुझसे मिल कर मुझे देना।' आज्ञानुसार रोहतासगढ़ के तहखाने में गया परन्तु आप न मिलीं। रिक्तगन्थ लेकर लौटने की हिम्मत न पड़ी क्योंकि तेजसिंह की गुप्त अमलदारी


  1. ऐयारी भाषा में 'हारीत' देवी-पूजा को कहते हैं।