पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/१७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
172
 

कर रक्खा है।

माया––अच्छा तो तू मुझसे जुदा होकर कहाँ जाएगी?

धनपत––जहाँ कहो।

माया––(कुछ सोचकर) अभी जल्दी न करो, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह कब्जे में आ ही चुके हैं, सूर्योदय के पहले ही मैं उनका काम तमाम कर दूँगी।

धनपत––मगर उसका क्या बन्दोबस्त किया जायगा जिसके विषय में चण्डूल में तेरे कान में...

माया––आह, उसकी तरफ से भी अब मुझे निराशा हो गई, वह बड़ा जिद्दी है।

धनपत––तो क्यों नहीं उसकी तरफ से भी निश्चिन्त हो जाती हो?

माया––हाँ, अब यही होगा।

धनपत––फिर देर करने की क्या जरूरत है?

माया––मैं अभी जाती हूँ, क्या तू भी मेरे साथ चलेगी?

धनपत––मैं चलने को तैयार हूँ, मगर न मालूम उसे (चण्डूल को) यह बात क्योंकर मालूम हो गई।

माया––खैर, अब चलना चाहिए।

अब मायारानी का ध्यान कैदखाने की ताली पर गया। अपनी कमर में ताली न देख कर बहुत हैरान हुई। थोड़ी देर के लिए वह अपने को बिल्कुल ही भूल गई पर आखिर एक लम्बी साँस लेकर धनपत से बोली––

माया––आफत आने की यह दूसरी निशानी है।

धनपत––सो क्या? मेरी समझ में कुछ भी न आया कि यकायक तेरी अवस्था क्यों बदल गई और किस नई घटना ने आकर तुझे घेर लिया।

माया––कैदखाने की ताली जिसे मैं सदा अपनी कमर में रखती थी, गायब हो गई।

धनपत––(घबराकर) कहीं दूसरी जगह न रख दी हो।

माया––नहीं-नहीं, जरूर मेरे पास ही थी। चल लाड़िली से पूछूँ, शायद वह इस विषय में कुछ कह सके।

मायारानी धनपत को साथ लिए लाड़िली के कमरे में गई मगर वहाँ लाड़िली थी कहाँ जो मिलती। अब उसकी घबराहट की कोई हद न रही। एकदम बोल उठी, "बेशक लाडिली ने धोखा दिया।"

धनपत––उसे ढूँढ़ना चाहिए।

मायारानी––(आसमान की तरफ देख कर और लम्बी साँस लेकर) आह, यह पहर भर के लगभग रात जो बाकी है मेरे लिए बड़ी ही अनमोल है। इसे मैं लाड़िली की खोज में व्यर्थ नहीं खोना चाहती। इतने ही समय में मुझे उस जिद्दी के पास पहुँचना और उसका सिर काट कर लौट आना है। कैदियों से भी ज्यादे तरद्दुद मुझे उसका है। हाय, अभी तक वह आवाज मेरे कानों में गूँज रही है जो चण्डूल ने कही थी। खैर, वहाँ जाते-जाते कैदखाने को भी देखती चलूँगी, (जोश में आकर) कैदी चाहे कैदखाने के बाहर