एक आदमी जमीन पर औंधा पड़ा हुआ था और पास की जमीन खून से तरबतर हो रही थी। उसे देखते ही भूतनाथ चौंक कर बोला––
भूतनाथ––ओफ, मालूम होता है कि इसने सिर पटककर जान दे दी (मायारानी की तरफ देख के) क्योंकि तुम्हारा सामना करना इसे मंजूर न था!
मायारानी––शायद ऐसा ही हो! आखिर मैं भी तो इसे मारने को ही आई थी। अच्छा हुआ, इसने अपनी जान आप ही दे दी, मगर अब यह क्योंकर निश्चय हो कि यह अभी जीता है या मर गया?
धनपत––(गौर से गोपालसिंह को देखकर) साँस लेने की आहट नहीं मालूम होती, जहाँ तक मैं समझती हूँ इसमें दम नहीं है।
भूतनाथ––(मायारानी से) आप इस जंगले में जाकर इसे अच्छी तरह देखिये, कहिये तो ताला खोलूँ।
मायारानी––नहीं-नहीं, मुझे अब भी इसके पास जाते डर मालूम होता है, कहीं नकल न किये हो! (गोपाल सिंह को अच्छी तरह देख के) वह तिलिस्मी खंजर इसके पास नहीं दिखाई देता?
भूतनाथ––वह खंजर देवीसिंह ने एक सप्ताह के लिए इससे माँग लिया था, और इस समय उसी के पास है।
मायारानी––तब तो तुम बेखौफ इसके अन्दर जा सकते हो, अगर जीता भी होगा तो कुछ न कर सकेगा, क्योंकि इसका हाथ खाली है और तुम्हारे पास तिलिस्मी खंजर है!
भूतनाथ––बेशक, मैं इसके पास जाने में नहीं डरता।
उस जंगले के दरवाजे में एक ताला लगा हुआ था जिसे भूतनाथ ने खोला, और अन्दर जाकर राजा गोपालसिंह की लाश को सीधा किया, तब मायारानी की तरफ देख कर कहा, "अब इसमें दम नहीं है, आप बेखौफ चली आवें और इसे देखें।" मायारानी धनपत का हाथ थामे हुए उस कोठरी के अन्दर गई और अच्छी तरह गोपालसिंह को देखा। सिर फट जाने और खून निकलने के साथ ही दम निकल जाने से गोपालसिंह का चेहरा कुछ भयानक-सा हो गया था। मायारानी को जब निश्चय हो गया कि इसमें दम नहीं है, तब वह बहुत खुश हुई और भूतनाथ की तरफ देखकर बोली, "अब मैं इस दुनिया में निश्चिन्त हुई। मगर इस लाश का भी नाम-निशान मिटा देना ही उचित है।"
भूतनाथ––यह कौन-सी बड़ी बात है। इसे ऊपर ले चलिए, और जंगल में से लकड़ियाँ बटोर कर फूँक दीजिए।
मायारानी––नहीं-नहीं, रात के वक्त जंगल में विशेष रोशनी होने से ताज्जुब नहीं कि किसी को शक हो या राजा वीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार ही इधर आ निकले और देख ले।
भूतनाथ––खैर, जाने दीजिए, इसकी भी एक सहज तरकीब बताता हूँ।
मायारानी––वह क्या?