पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/५०

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यह इमारत बहुत बड़ी तो न थी, मगर मजबूत थी। दीवार बहुत चौड़ी और ऊँची थी। फाटक बहुत बड़ा और लोहे का था। पहरे पर पचास आदमी नंगी तलवारें लिये हर वक्त मुस्तैद रहते थे। इस मैगजीन के चारों तरफ से कोई आदमी आग लेकर नहीं जाने पाता था।

चन्द्रमा अस्त हो गया और पिछली रात की अँधेरी चारों तरफ फैल गई। निद्रादेवी की हुकूमत में सभी पड़े हुए थे यहाँ तक कि पहरे वालों की आँखें भी झिपी पडती थीं। उसी समय मौका पाकर भैरोंसिंह ने मैगजीन के पिछली तरफ कमन्द लगाई। दीवार के ऊपर चढ़ जाने के बाद कमन्द खींच ली और फिर उसी के सहारे उतर गए। मैगजीन के अन्दर हजारों थैले बारूद के गँजे हुए पड़े थे, तोप के गोलों का ढेर लगा हुआ था, बहुत-सी तोपें भी पड़ी हुई थीं। भैरोंसिंह ने यह मोमबत्ती जलाई और बारूद के थैलों के पास जमीन पर लगाकर खड़ी कर दी, इसके बाद फुर्ती से मैगजीन के बाहर हो गए और जहाँ तक दूर निकल जाते बना, निकल गए। उसी के घण्टे भर बाद (जब मोमबत्ती का अनार छूटा होगा) बारूद में आग लगी और मैगजीन की इमारत जड़ बुनियाद से नष्ट हो गई। हजारों आदमी मरे और सैकड़ों मकान गिर पड़े, बल्कि यों कहना चाहिए कि उसकी आवाज से रोहतासढ़ का किला दहल उठा, जरूर कई कोस तक इसकी भयानक आवाज गई होगी। पहाड़ी के नीचे वीरेन्द्रसिंह के लश्कर में जब यह आवाज पहुँची तो दोनों सेनापति समझ गए कि मैगजीन में आग लगी, क्योंकि ऐसी भयानक आवाज सिवाय मैगजीन उड़ने के और किसी तरह से नहीं हो सकती। बेशक यह काम भैरोंसिंह का है।

मैगजीन उड़ने का विश्वास होते ही दोनों सेनापति बहुत प्रसन्न हुए और समझ गए कि अब रोहतासगढ़ का किला फतह कर लिया, क्योंकि जब बारूद का खजाना ही उड़ गया तो किले वाले तोपों के जरिये से हमें कैसे रोक सकते हैं। दोनों सेनापतियों ने यह सोचकर, कि अब विलम्ब करना मुनासिब नहीं है, किले पर चढ़ाई कर दी और दो हजार आदमियों को साथ ले नाहरसिंह पहाड़ पर चढ़ने लगा। यद्यपि दोनों सेनापति इस बात को समझते थे कि मैगजीन उड़ गई है, तो भी कुछ बारूद तोपखाने में जरूर होगी, मगर यह खयाल उनके बढ़े हुए हौसले को किसी तरह रोक न सका।

इधर दिग्विजयसिंह अपनी जिन्दगी से बिल्कुल नाउम्मीद हो बैठा। जब उसे यह खबर पहुँची कि रामानन्द दीवान (या ऐयार) भी मारा गया और बहुत-सी तोपें भी कील ठुक जाने के कारण बर्बाद हो गईं, तब वह और बेचैन हो गया और मालूम होने लगा कि मौत नंगी तलवार लिए सामने खड़ी है। वह पहर दिन चढ़े तक पागलों की तरह चारों तरफ दौड़ता रहा और तब एकान्त में बैठकर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए। जब उसे जान बचाने की कोई तरकीब न सूझी और यह निश्चय हो गया कि अब रोहतासगढ़ का किला किसी तरह नहीं रह सकता और दुश्मन लोग भी मुझे किसी तरह जीता नहीं छोड़ सकते, तब वह हाथ में नंगी तलवार लेकर उठा और तहखाने की ताली निकाल कर यह कहता हुआ तहखाने की तरफ चला कि "जब मेरी जान बच ही नहीं सकती तो वीरेन्द्रसिंह और उनके लड़कों वगैरह को क्यों जीता छोडूँ?