गई और नीचे की सतह में एक पीतल की एक मूरत दिखाई पड़ी। मूरत बहुत बड़ी न थी, एक हिरन का शेर ने शिकार किया था, हिरन की गर्दन का आधा हिस्सा शेर के मुँह में था। मूरत बहुत ही खूबसूरत और कीमती थी, मगर मिट्टी के अन्दर बहुत दिनों तक दबे रहने से मैली और खराब हो रही थी। वीरेन्द्रसिंह ने उसे अच्छी तरह झाड़-पोंछ कर साफ करने का हुक्म दिया।
वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से कहा, "इस खुदाई में समय भी नष्ट हुआ, और काम भी न निकला।"
तेजसिंह––मैं इस मूरत पर अच्छी तरह गौर कर रहा हूँ, मुझे आशा है कि कोई अनूठी बात जरूर दिखाई पड़ेगी।
वीरेन्द्रसिंह––(ताज्जुब में आकर) देखो-देखो, शेर की आँखें इस तरह घूम रहा हैं जैसे वह इधर-उधर देख रहा हो!
आनन्दसिंह––(अच्छी तरह देखकर) हाँ, ठीक तो है!
इसी समय एक आदमी दौड़ता हुआ आया, और हाथ जोड़कर बोला, "महाराज, चारों तरफ से दुश्मन की फौज ने आकर हम लोगों को घेर लिया है। दो हजार सवारों के साथ शिवदत्त आ पहुँचा, जरा मैदान की तरफ देखिए।"
न मालूम शिवदत्त इतने दिनों तक कहाँ छिपा हुआ था, और वह क्या कर रहा था। इस समय दो हजार फौज के साथ उसका यकायक आ पहुँचना और चारों तरफ से खँडहर को घेर लेना बड़ा ही दुखदायी हुआ, क्योंकि वीरेन्द्रसिंह के पास इस समय केवल सौ सिपाही थे।
सूर्य अस्त हो चुका था, चारों तरफ से अँधेरी घिरी चली आती थी। फौज सहित राजा शिवदत्त जब तक खँडहर के पास पहुँचे, तब तक रात हो गई। राजा शिवदत्त को तो यह मालूम ही हो चुका था कि केवल सौ सिपाहियों के साथ राजा वीरेन्द्रसिंह, कुँअर आनन्दसिंह और उनके ऐयार लोग इसी खँडहर में हैं, परन्तु राजा वीरेन्द्रसिंह, कुमार और उनके ऐयारों की वीरता और साहस को भी वह अच्छी तरह जानता था, इसलिए रात के समय खँडहर के अन्दर घुसने की उसकी हिम्मत न पड़ी। यद्यपि उसके साथ दो हजार सिपाही थे, मगर खँडहर के अन्दर डेढ़ दो सौ सिपाहियों से ज्यादा नहीं जा सकते थे, क्योंकि उसके अन्दर ज्यादा जमीन न थी, और वीरेन्द्रसिंह तथा उनके साथी इतने आदमियों को कुछ भी न समझते, इसलिए शिवदत्त ने सोचा कि रात भर इस खँडहर को घेर कर चुपचाप पड़े रहना ही उत्तम होगा। वास्तव में शिवदत्त का विचार बहुत ठीक था और उसने ऐसा ही किया भी। राजा वीरेन्द्रसिंह को भी रात-भर सोचने- विचारने की मोहलत मिली। उन्होंने कई सिपाहियों को फाटक पर मुस्तैद कर दिया और उसके बाद अपने बचाव का ढंग सोचने लगे।