पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/१२

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आये हैं कि उस खम्भे में तरह-तरह की तस्वीरें बनी हुई थीं। आनन्दसिंह ने एक मूरत पर हाथ रख कर जोर से दबाया, साथ ही एक छोटी-सी खिड़की अन्दर जाने के लिए दिखाई दी। छोटे कुमार उसी खिड़की की राह उस गोल खम्भे के अन्दर घुस गये, और थोड़ी ही देर बाद उस नकली बाग में दिखाई देने लगे। खम्भे के अन्दर रास्ता कैसा था और वह नकली बाग के पास क्योंकर पहुँँचे, इसका हाल आगे चलकर दूसरी दफे किसी और के आने या जाने के समय बयान करेंगे, यहाँ मुख्तसिर ही में लिखकर मतलब पूरा करते हैं।

आनन्दसिंह भी उस तरफ गये, जिधर वह आदमी गया था या जिधर से किसी औरत के रोने की आवाज आई थी। घूमते-फिरते एक छोटे मकान के आगे पहुँँचे जिस का दरवाजा खुला हुआ था। वहाँ औरत तो कोई दिखाई न दी, मगर उस आदमी को दरवाजे पर खड़े हुए जरूर पाया।

आनन्दसिंह को देखते ही वह आदमी झट मकान के अन्दर घुस गया और कुमार भी तेजी के साथ उसका पीछा किए बेखौफ मकान के अन्दर चले गये। वह मकान दो मंजिल का था, उसके अन्दर छोटी-छोटी कई कोठरियाँ थीं और हर एक कोठरी में दो-दो दरवाजे थे, जिससे आदमी एक कोठरी के अन्दर जाकर कुल कोठरियों की सैर कर सकता था।

यद्यपि कुमार तेजी के साथ पीछा किए हुए चले गये, मगर वह आदमी एक कोठरी के अन्दर जाने के बाद कई कोठरियों में घूम-फिर कर कहीं गायब हो गया। रात का समय था और मकान के अन्दर तथा कोठरियों में बिल्कुल अन्धकार छाया हुआ था, ऐसी अवस्था में कोठरियों के अन्दर घूम-घूम कर उस आदमी का पता लगाना बहुत ही मुश्किल था, दूसरे, इसका भी शक था कि वह कहीं हमारा दुश्मन न हो, लाचार होकर कुमार वहाँ से लौटे, मगर मकान के बाहर न निकल सके, क्योंकि वह दरवाजा बन्द हो गया था जिसकी राह से कुमार मकान अन्दर घुसे थे। कुमार ने दरवाजा उतारने का भी उद्योग किया मगर उसकी मजबूती के आगे कुछ बस न चला। आखिर दुखी होकर फिर मकान के अन्दर घुसे और एक कोठरी के दरवाजे पर जाकर खड़े हो गये। थोड़ी देर के बाद ऊपर की छत पर से फिर किसी औरत के रोने की आवाज आई, गौर करने से कुमार को मालूम हुआ कि यह बेशक उसी औरत की आवाज है जिसे सुनकर यहाँ तक आए थे। उस आवाज की सीध पर कुमार ने ऊपर की दूसरी मंजिल पर जाने का इरादा किया, मगर सीढ़ियों का पता न लगा।

इस समय कुमार का दिल कैसा बेचैन था, यह वही जानते होंगे। हमारे पाठकों में भी जो दिलेर और बहादुर होंगे, वह उनके दिल की हालत कुछ समझ सकेंगे। बेचारे आनन्दसिंह हर तरह से उद्योग करके रह गए, पर कुछ भी न बन पड़ा। न तो वे उस आदमी का पता लगा सकते थे, जिसके पीछे-पीछे मकान के अन्दर घुसे थे, न उस औरत का हाल मालूम कर सकते थे, जिसके रोने की आवाज से दिल बेताब हो रहा था, और न उस मकान ही से बाहर होकर अपने भाई इन्द्रजीतसिंह को इन सब बातों की खबर कर सकते थे, बल्कि यों कहना चाहिए कि सिवाय चुपचाप खड़े रहने या बैठ