श्यामसुन्दरसिंह-क्यों? तूने तो समझा होगा कि बस अब मैं बच कर निकल आई और जवाहरात की गठरी नरम चारे की तरह हजम हो गई!
भगवानी—(कुछ सोचकर) नहीं-नहीं, मैं इसमें से तुम्हें आधा बाँट देने के लिए तैयार हूँ। आखिर दुश्मन लोग इसे भी लूट कर ले ही जाते, अगर मैं बचाकर ले आई तो क्या बुरा हुआ? सो भी बाँट देने के लिए तैयार हूँ।
श्यामसुन्दरसिंह-ठीक है मगर मैं आधा बाँट कर नहीं लिया चाहता बल्कि सब लिया चाहता हूँ।
भगवानी—सो कैसे होगा? जरा सोचो तो सही कि मैं दुश्मनों के हाथ से कितनी मेहनत करके इसे बचा लाई हूँ, और सब तुम्ही ले लोगे तो मुझे क्या फायदा होगा?
श्यामसुन्दरसिंह-तो क्या तू कुछ फायदा उठाना चाहती है? अगर ऐसा ही है तो मालिक के नाथ नमकहरामी या दगा करने और दुश्मनों को बचाकर कैदखाने के बाहर कर देने में जो उचित लाभ होना चाहिए वह तुझे होगा!
भगवानी-(चौंक कर) आपने क्या कहा सो मैं न समझी! क्या आपको मुझ पर किसी तरह का शक है?
श्याम-नहीं, शक तो कुछ भी नहीं है या अगर है भी तो केवल दो बातों का एक तो कैदियों को बचाकर निकाल देने का और दूसरे मालिक के साथ दगा करने का।
भगवानी-नहीं-नहीं, कैदी लोग किसी और ढंग से निकल गये होंगे, मुझे तो उनकी कुछ खबर नहीं और तारा के साथ दगा करने के विषय में जो कुछ आप कहते हैं सो वह काम मेरा न था, बल्कि एक-दूसरी लौंडी का था जिसके सबब से बेचारी तारा मौत...
इतना कहकर भगवानी रुक गई। उसके रंग-ढंग से मालूम होता था कि जल्दी में आकर वह कोई ऐसी बात मुँह से निकाल बैठी है जिसे वह बहुत छिपाती थी। श्याम सुन्दरसिंह को भी उसकी आखिरी बात से निश्चय हो गया कि हरामजादी भगवानी ने दुश्मनों से मिलकर बेचारी तारा को मौत के पंजे में फंसा दिया, अस्तु बिना असल भेद का पता लगाए इसे कदापि न छोड़ना चाहिए।
श्याम–हाँ-हाँ, कहती चल, रुकी क्यों?
भगवानी-यही कि मैं ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे मालिक का नुकसान हो।
श्याम-अच्छा यह बता कि कैदियों को निकालने वाला और तारा को फंसाने वाला कौन है?
भगवानी—यह काम नमकहराम लालन लौंडी का है।
श्याम–-यदि मैं इस समय के लिए तेरा ही नाम लालन रख दूँ तो क्या हर्ज है क्योंकि मेरी समझ में बेचारी लालन निर्दोष है जो कुछ किया तू ही ने किया, कैदियों ने तुझी को अपना विश्वासपात्र समझा, तुझी से काम लिया और तेरो ही मदद से निकल भागे, इतने दुश्मनों को भी तू ही बटोर कर लाई है और इतने पर भी संतोष न पाकर बेचारी तारा को भी तू ने ही....