पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/१७२

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“आह, मुझे गुमान न था कि उस नकाबपोश के अन्दर एक ऐसे की सूरत छिपी हुई है जो अपना सानी नहीं रखता, मगर बहुत बुरा हुआ। वह चीज मेरे हाथ में होती, तो भूतनाथ को इतना डर न था, जितना अब है। खैर, क्या हर्ज है, जब पता लग गया तो जाता कहाँ है? आज नहीं कल, कल नहीं परसों। एक-न-एक दिन बदला ले लूँँगा। मगर सुनो तो सही, मुझे एक नई बात सूझी है।”

विचित्र मनुष्य ने उस औरत से धीरे-धीरे कुछ कहा, जिसे वह बड़े गौर से सुनती रही और जब बात पूरी हो गई, तो बोली, “ठीक है, ठीक है। मैं अभी जाती हूँ, निश्चय रखो कि मेरी सवारी का घोड़ा घंटे भर के अन्दर अपनी पीठ खाली कर देगा और बहुत जल्द...

आदमी―बस-बस, मैं समझ गया। तुम जाओ और मैं भी अब उसके पास जाता हूँ।

उस औरत को बिदा करके वह विचित्र मनुष्य फिर उसी जगह आया, जहाँ भूतनाथ अभी तक सिर झुकाये हुए बैठा था मगर उस नकाबपोश का कहीं पता न था।

आदमी―(भूतनाथ से) वह नकाबपोश कहाँ गया?

भूतनाथ―(इधर-उधर देखकर) मालूम नहीं, कहाँ चला गया।

आदमी―क्या तुम उसे जानते हो?

भूतनाथ―नहीं।

आदमी―मगर वह तुम्हारा पक्ष क्यों करता है?

भूतनाथ—मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं देखी, जिसमें मालूम हो कि वह मेरा पक्ष करता था।

आदमी–तुमने कोई ऐसी बात नहीं देखी, तो मैं कह देना उचित समझता हूँ कि वह नकाबपोश वह गठरी बेगम के हाथ से जबर्दस्ती ले गया, जिसमें तारा की किस्मत बन्द थी।

भूतनाथ―चलों, अच्छा हुआ, एक बला से तो छुटकारा मिला!

आदमी―छुटकारा नहीं मिला बल्कि तुम और भी बड़ी आफत में फँस गये यदि वास्तव में तुम उसे नहीं जानते!

भूतनाथ―हाँ, ऐसा भी हो सकता है, खैर, जो कुछ किस्मत में बदा है, होगा, मगर तुम यह बताओ कि अब मुझसे क्या चाहते हो? किसी तरह मेरा पिंड छोड़ोगे या नहीं?

आदमी―क्या हुआ, अगर वह गठरी चली गई, मगर फिर भी तुम खूब समझते होगे कि अभी तक तुम पूरी तरह से मेरे कब्जे में हो और तुम्हारी वह प्यारी चीज भी मेरे कब्जे में हैं जिसका इशारा मैं पहले कर चुका हूँ। अतः मैं हुक्म देता हूँ कि तुम उठो और मेरे साथ चलो!

भूतनाथ―खैर चलो, मैं चलता हूँ।

इतना कहकर भूतनाथ ने आसमान की तरफ देखा और एक लम्बी साँँस ली। इस समय दिन अनुमान से पहर-भर चढ़ चुका था और धूप में हरारत क्रमशः