जो मेरे दिल में शक पैदा कर सकती है, मगर उस कागज के मुट्ठे में जितनी चिट्ठियाँ भूतनाथ के हाथ की लिखी कही जाती हैं वे अवश्य भूतनाथ के हाथ की लिखी हुई हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं क्योंकि जब मैंने भूतनाथ से कहा था कि तुम्हारे अक्षर इन चिट्ठियों के अक्षरों से मिलते हैं तो इस बात का कोई जवाब उसने नहीं दिया अस्तु उन दुष्ट कर्मों का करने वाला तो अवश्य भूतनाथ है मगर क्या यह बलभद्रसिंह भी वास्तव में असली बलभद्रसिंह नहीं है? अजब तमाशा है, कुछ समझ में नहीं आता कि क्या निश्चय किया जाय।
इन सब बातों को सोचते हुए देवीसिंह वहाँ से रवाना हुए और डोंगी पर सवार हो मकान के अन्दर गए जहाँ तेजसिंह उस कागज के मुट्ठे को हाथ में लिए हुए देवीसिंह के वापस आने की राह देख रहे थे।
तेजसिंह―देवीसिंह, तुमने इतनी देर क्यों लगाई? मैं कब से राह देख रहा हूँ कि तुम आ जाओ तो इस मुट्ठे को खोलूँ।
देवीसिंह―हाँ-हाँ, आप पढ़िये, नैं भी आ गया।
तेजसिंह―मगर यह तो कहो कि तुम्हें इतनी देर क्यों लगी?
देवीसिंह―भूतनाथ ने मुझे रोक लिया और कहा कि पहले मेरी बातें सुन लो तब यहाँँ से जाओ।
बलभद्रसिंह―क्या भूतनाथ तालाब के बाहर अभी तक बैठा है?
देवीसिंह―हाँ, अभी तक बैठा है और बैठा रहेगा।
बलभद्रसिंह–सो क्यों, क्या कहता है?
देवीसिंह―वह कहता है कि मुझे कमलिनी ने बिना समझे व्यर्थ निकाल दिया, उन्हें चाहिए था कि नकली बलभद्रसिंह के सामने मेरा इन्साफ करतीं।
बलभद्रसिंह―नकली बलभद्रसिंह कैसा?
देवीसिंह―वह आपको नकली बलभद्रसिंह बताता है और कहता है कि असली बलभद्रसिंह अभी तक एक जगह कैद हैं, अगर किसी को शक हो तो मुझ से सवाल-जवाब कर ले।
बलभद्रसिंह―नकली और असली होने के सबूत की जरूरत है या सवाल-जवाब करने की?
देवीसिंह―ठीक है मगर उसने आपको बुलाया है और कहा है कि बलभद्रसिंह मेरी एक बात आकर सुन जाय फिर जो कुछ भी उनके जी में आवे करे।
बलभद्रसिंह―मारो कम्बख्त को, मैं अब उसकी बातें सुनने के लिए क्यों जाने लगा?
देवीसिंह―क्या हर्ज है अगर आप उसकी दो बातें सुन लें, कदाचित् कोई नया रहस्य ही मालूम हो जाय!
बलभद्रसिंह―नहीं, मैं उसके पास न जाऊँगा।
तेजसिंह―तो भूतनाथ को इसी जगह क्यों न बुला लिया जाय?
कमलिनी―हाँ, मैं भी यही उचित समझती हूँ।