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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/१३१

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साथ करना मंजूर न होता, तो निःसन्देह मुझे भी मार डालते और या फिर गिरफ्तार ही न करते।

इन्द्रजीतसिंह--ठीक है, (इन्दिरा से) अच्छा तब ?

इन्दिरा--मेरे पिता ने जब यह सुना कि दामोदर सिंह के नौकर रामप्यारे ने कुँअर साहब को धोखा दिया तो उन्हें निश्चय हो गया कि रामप्यारे भी जरूर उस कमेटी का मददगार है। वे कुँअर साहब की आज्ञानुसार तुरन्त उठ खड़े हुए और रामप्यारे की खोज में फाटक पर आये मगर खोज करने पर मालूम हुआ कि रामप्यारे का पता नहीं लगता। लौटकर कुँअर साहब के पास गये और बोले, "जो सोचा था वही हुआ। रामप्यारे भाग गया, आपका खिदमतगार भी जरूर भाग गया होगा।"

इसके बाद कुँअर साहब और मेरे पिता देर तक बातचीत करते रहे। पिता ने कुँअर साहब को कुछ खिला-पिलाकर और समझा-बुझाकर शान्त किया और वादा किया कि मैं उस सभा तथा उसके सभासदों का पता जरूर लगाऊँगा। पहर रात-भर बाकी होगी जब कुंअर साहब अपने घर की तरफ रवाना हुए। कई आदमियों को संग लिए हुए मेरे पिता भी उनके साथ गए। राजमहल के अन्दर पैर रखते ही कुँअर साहब को पहले अपने पिता अर्थात् बड़े महाराज से मिलने की इच्छा हुई और वे मेरे पिता का साथ लिए हुए सीधे बड़े महाराज के कमरे में चले गए, मगर अफसोस, उस समय बड़े महाराज का देहान्त हो चुका था और यह बात सबसे पहले कुँअर साहब ही को मालूम हुई थी। उस समय बड़े महाराज पलंग के ऊपर इस तरह पड़े हुए थे जैसे कोई घोर निद्रा में हो मगर जब कुंअर साहब ने उन्हें जगाने के लिए हिलाया, तब मालूम हुआ कि वे महानिद्रा के अधीन हो चुके हैं।

इन्दिरा के मुँह से इतना हाल सुनते-सुनते राजा गोपालसिंह की आँखों में आँसू भर आए और दोनों कुमारों के नेत्र भी सूखे न रहे। राजा साहब ने एक लम्बी साँस ले कर कहा, "मेरा माँ का देहान्त पहले ही हो चका था, उस समय पिता के भी परलोक सिधारने से मुझे बड़ा ही कष्ट हआ। (इन्दिरा से) अच्छा, आगे कहो।"

इन्दिरा--बड़े महाराज के देहान्त की खबर जब चारों तरफ फैली तो महल और शहर में बड़ा ही कोलाहल मचा, मगर इस बात का खयाल कुँअर साहब और मेरे माता-पिता के अतिरिक्त और किसी को भी न था कि बड़े महाराज की जान भी उसी गुप्त कमेटी ने ली है और न इन दोनों ने ही अपने दिल का हाल किसी से कहा। इसके दो महीने बाद कुंअर साहब जमानिया की गद्दी पर बैठे और राजा कहलाने लगे इस बीच में मेरे पिता ने उस कमेटी का पता लगाने के लिए बहुत उद्योग किया मगर कुछ पता न लगा। उन दिनों कई रजवाड़ों से मातमपुर्सी के खत आ रहे थे। रणधीरसिंह जी (किशोरी ने नाना) के यहां से मातमपुर्सी का खत लेकर उनके ऐयार गदाधरसिंह आये थे। गदाधरसिंह से और पिता से कुछ नातेदारी भी है जिसे मैं भी ठीकठोक नहीं जानती और इस समय मातमपूर्सी की रस्म पूरी करने के बाद मेरे पिता की इच्छानुसार उन्होंने भी मेरे ननिहाल ही में डेरा डाला जहाँ मेरे पिता रहते थे और इस बहाने से कई दिनों तक दिन-रात दोनों आदमियों का साथ रहा। मेरे पिता ने यहाँ का