पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/१९१

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मैंने दारोगा की बातों का यह जवाब दिया कि "बात तो आपने बहुत ही ठीक कही, अच्छा मैं आपके कहे मुताबिक चिट्ठी कल लिख दूंगी।"

दारोगा--यह काम देर करने का नहीं है, इसमें जितनी जल्दी करोगी उतनी जल्दी तुम्हें छुट्टी मिलेगी।

मैं--ठीक है मगर इस समय मेरे सिर में बहुत दर्द है, मुझसे एक अक्षर भी न लिखा जायगा।

दारोगा--अच्छा, कोई हर्ज नहीं, कल सही।

इतना कहकर दारोगा हमारे कमरे के बाहर चला गया और फिर मुझमें और अन्ना में बातचीत होने लगी। मैंने अन्ना से कहा, "क्यों अन्ना, तू क्या समझती है ? मुझे तो दारोगा की बात सच जान पड़ती है।"

अन्ना--(कुछ सोचकर) जैसी चिट्ठी दारोगा तुमसे लिखाना चाहता है वह केवल इस योग्य ही नहीं कि यदि राजा गोपालसिंह दोषी हैं तो लोक-निन्दा से उनको बचावे बल्कि वह चिट्ठी बनिस्बत उनके दारोगा के काम की ज्यादा होगी, अगर यह स्वयं दोषी है तो।

मैं--ठीक है, मगर ताज्जुब की बात है कि जो राजा साहब मुझे अपनी लड़की से बढ़कर मानते थे वे ही मेरी जान के ग्राहक बन जायें।

अन्ना--कौन ठिकाना, कदाचित ऐसा ही हो।

मैं--अच्छा तो अब क्या करना चाहिए?

अन्ना--(कुछ सोचकर) चिट्ठी तो कभी न लिखनी चाहिए चाहे राजा गोपालसिंह दोषी हों या दारोगा दोषी हो। इसमें कोई सन्देह नहीं कि चिट्ठी लिख देने के बाद तू मार डाली जायगी।

अन्ना की बात सुनकर मैं रोने लगी और समझ गई कि अब मेरी जान नहीं बचती और ताज्जुब नहीं कि दारोगा के मतलब की चिट्ठी लिख देने के कारण मेरी माँ इस दुनिया से उठा दी गई हो। थोड़ी देर तक तो अन्ना ने रोने में मेरा साथ दिया लेकिन इसके बाद उसने अपने को सम्हाला और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। कुछ देर के बाद अन्ना ने मुझसे कहा कि "बेटी, मुझे कुछ आशा हो रही है कि हम लोगों को इस कैदखाने से निकल जाने का रास्ता मिल जायगा। मैं पहले कह चकी हैं और अब भी कहती हूँ कि रात को (कोठरी की तरफ इशारा करके) उस कोठरी में सिर पर से गठरी फेंक देने की तरह धमाके की आवाज सुनकर मैं जाग उठी थी और जब उस कोठरी में गई तो वास्तव में एक गठरी पर निगाह पड़ी। अब जो मैं सोचती हूँ तो विश्वास होता है कि उस कोठरी में कोई ऐसा दरवाजा जरूर है जिसे खोलकर बाहर वाला उस कोठरी में आ सके या उसमें से बाहर जा सके। इसके अतिरिक्त इस कोठरी में भी तख्ते बन्दी की दीवार है जिससे कहीं न कहीं दरवाजा होने का शक हर एक ऐसे आदमी की हो सकता है जिस पर हमारी तरह मुसीबत आई हो, अस्तु आज का दिन तो किसी तरह काट ले, रात को मैं दरवाजा ढूंढ़ने का उद्योग करूंगी।"

अन्ना की बातों से मुझे भी कुछ ढाढ़स हुई। थोड़ी देर बाद कमरे का दरवाजा