के असर से तुम्हारा बदन, तुम्हारी सूरत और तुम्हारी जिन्दगी खराब हुए बिना नहीं रह सकती। ताज्जुब नहीं कि आज नहीं तो दो-चार वर्ष के अन्दर तुम मर ही जाओ अतएव मैं तुम्हारे मारने के लिए कोई कष्ट नहीं उठाता बल्कि तुम्हारे इन जख्मों को आराम करने का उद्योग करता हूँ और इसमें अपना फायदा भी समझता हूँ।" इतना कहकर दारोगा चला गया और मुझें कई दिनों तक उसी तहखाने में रहना पड़ा। इस बीच में जर्राह दिन में तीन-चार दफे मेरे पास आता और जख्मों को साफ करके पट्टी लगा जाता। जब मेरे जख्म दुरुस्त होने पर आये तो उस जर्राह ने कहा कि अब पट्टी बदलने की जरूरत न पड़ेगी तब मैं पुनः इस जगह पहुँचा दिया गया।
लक्ष्मीदेवी--(ऊँची साँस लेकर) न मालूम हम लोगों ने ऐसे कौन पाप किये हैं जिनका फल यह मिल रहा है।
इतना कह लक्ष्मीदेवी रोने लगी और नकली बलभद्रसिंह उसको दम-दिलासा देकर समझाने लगा।
हमारे पाठक आश्चर्य करते होंगे कि दारोगा ने ऐसा क्यों किया और उसे एक नकली बलभद्रसिंह बनाने की क्या आवश्यकता थी। अस्तु इसका सबब इसी जगह लिख देना हम उचित समझते हैं।
कम्बख्त दारोगा ने सोचा कि लक्ष्मीदेवी की जगह मैंने मुन्दर को रानी बना तो दिया मगर कहीं ऐसा न हो कि दो-चार वर्ष के बाद या किसी समय लक्ष्मीदेवी की रिश्तेदारी में कोई या उसकी दोनों बहिनें मुन्दर से मिलने आवें और लक्ष्मीदेवी से लड़क- पन का जिक्र छेड़ दें, और उस समय मुन्दर उसका कुछ जवाब न दे सके तो उनको शक हो जायगा। सूरत-शक्ल के बारे में तो कुछ चिन्ता नहीं, जैसी लक्ष्मीदेवी खूबसूरत है वैसी ही मुन्दर भी है और औरतों की सूरत-शक्ल प्रायः विवाह होने के बाद शीघ्र ही बदल जाती है अस्तु सूरत-शक्ल के बारे में कोई कुछ कह नहीं सकेगा, परन्तु जब पुरानी बातें निकलेंगी और मुन्दर कुछ जबाब न दे सकेगी तब कठिन होगा। अतएव लक्ष्मी- देवी का कुछ हाल, उसके लड़कपन की कैफियत, उसके रिश्तेदारों और सखी-सहेलियों के नाम और उनकी तथा उनके घरों की अवस्था से मुन्दर को पूरी तरह जानकारी हो जानी चाहिए। अगर वह सब हाल हम बलभद्रसिंह से पूछेगे तो वह कदापि न बतायेगा, हां, अगर किसी दूसरे आदमी को बलभद्रसिंह बनाया जाय और वह कुछ दिनों तक लक्ष्मीदेवी के साथ रह कर इन बातों का पता लगावे तब चल सकता है, इत्यादि बातों को सोच कर ही दारोगा ने उपरोक्त चालाकी की और कृतकार्य भी हुआ अर्थात् दो ही चार महीने में नकली बलभद्रसिंह को लक्ष्मीदेवी का पूरा-पूरा हाल मालूम हो गया। उसने सब हाल दारोगा से कहा और दारोगा ने मुन्दर को सिखा-पढ़ा दिया।
जब इन घातों से दारोगा की दिलजमई हो गई तो उसने नकली बलभद्रसिंह को कैदखाने से बाहर कर दिया और फिर मुद्दत तक लक्ष्मीदेवी को अकेले ही कैद की तकलीफ उठानी पड़ी।