नकाबपोश--इसलिए कि अभी महीना भर भी नहीं हुआ कि राजा गोपालसिंह का भी इन्तकाल हो गया। अब तुम्हारी फरियाद सुननेवाला वहाँ कोई नहीं है और यदि तुम वहाँ जाओगी और मायारानी को कुछ मालूम हो जायगा तो तुम्हारी जान कदापि न बचेगी।
इतना सुनकर लक्ष्मीदेवी अपनी बदकिस्मती पर रोने लगी और वह नकाबपोश उसे समझाने-बुझाने लगा। अन्त में लक्ष्मीदेवी ने कहा, "अच्छा, फिर तुम्ही बताओ कि मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ?"
नकाबपोश--(कुछ देर सोचकर) तो तुम मेरे ही घर चलो। मैं तुम्हें अपनी ही बेटी समझूगा और परवरिश करूँगा।
लक्ष्मीदेवी--मगर तुम तो अपना परिचय तक नहीं देते!
नकाबपोश--(ऊँची साँस लेकर) खैर अब तो परिचय देना ही पड़ा और कहना ही पड़ा कि मैं तुम्हारे बाप का दोस्त 'इन्द्रदेव' हूँ।
इतना कहकर नकाबपोश ने चेहरे से नकाब उतारी और पूर्ण चन्द्र की रोशनी ने उसके चेहरे के हर एक रग-रेशे को अच्छी तरह दिखा दिया। लक्ष्मीदेवी उसे देखते ही पहचान गई और दौड़कर उसके पैरों पर गिर पड़ी। इन्द्रदेव ने उसे उठा कर उसका सिर छाती से लगा लिया और तब उसे अपने घर ले जाकर गुप्त रीति से बड़ी खातिर- दारी के साथ अपने यहाँ रक्खा।
लक्ष्मीदेवी का दिल फोड़े की तरह पका हुआ था। वह अपनी नई जिन्दगी में तरह-तरह की तकलीफें उठा चुकी थी। अब भी वह अपने बाप को खोज निकालने की फिक्र में लगी हुई थी और इसके अतिरिक्त उसका ज्यादा खयाल इस बात पर था कि किसी तरह मुझे अपने दुश्मनों से बदला लेना चाहिए। इस विषय पर उसने बहुत-कुछ विचार किया और अन्त में यह निश्चय किया कि इन्द्रदेव से ऐयारी सीखनी चाहिए। क्योंकि वह खूब जानती थी कि इन्द्रदेव ऐयारी के फन में बड़ा ही होशियार है। आखिर उसने अपने दिल का हाल इन्द्रदेव से कहा और इन्द्रदेव ने भी उसकी राय पसन्द की तथा दिलोजान से कोशिश करके उसे ऐयारी सिखाने लगा। यद्यपि वह दारोगा का गुरुभाई था तथापि दारोगा की करतूतों ने उसे हद से ज्यादा रंजीदा कर दिया था और उसे इस बात की कुछ भी परवाह न थी कि लक्ष्मीदेवी ऐयारी के फन में होशियार हो कर दारोगा से बदला लेगी। निःसन्देह इन्द्रदेव ने बड़ी मर्दानगी की और दोस्ती का हक जैसा चाहिए था वैसा ही निबाहा। उसने बड़ी मुस्तैदी के साथ लक्ष्मीदेवी को ऐयारी की विद्या सिखाई, बड़े-बड़े ऐयारों के किस्से सुनाये, एक-से-एक बढ़े-चढ़े नुस्खे सिखलाये, और ऐयारी के गूढ़ तत्वों को उसके दिल में नक्श (अंकित) कर दिया। थोड़े ही दिनों में लक्ष्मीदेवी पूरी ऐयारा हो गई और इन्द्रदेव की मदद से अपना नाम तारा रख कर मैदान की हवा खाने कौर दुश्मनों से बदला लेने की फिक्र में घूमने लगी।
लक्ष्मीदेवी ने तारा बनकर जो-जो काम किये, उन सब में इन्द्रदेव की राय लेती रही और इन्द्रदेव भी बराबर उसकी मदद और खबरदारी करते रहे।
यद्यपि इन्द्रदेव ने लक्ष्मीदेवी की जान बचाई, उसे अपनी लड़की के समान पाल