पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/६

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मगर इस योग्य भी न थी कि उससे गरीबी और कमलियाकत जाहिर होती। रेशमी तथा मोटे कपड़े की पोशाक हर जगह से चुस्त और फौजी अफसरों के ढंग की मगर सादी थी। कमर में एक भुजाली, लगी हुई थी और बाएँ हाथ में सोने की एक बड़ी-सी डलिया या चँगेर लटकाए हुए था। जिस समय वह कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की तरफ देख कर हँसा, उस समय यह भी मालूम हो गया कि उसके मुँह में जवानों की तरह कुल दाँत अभी तक मौजूद हैं और मोती की तरह चमक रहे हैं।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को आशा थी कि वे इस जगह कमलिनी को नहीं तो किसी-न-किसी औरत को अवश्य देखेंगे, मगर आशा के विपरीत एक ऐसे आदमी को देख उन्हें बड़ा ही ताज्जुब हुआ। इन्द्रजीतसिंह ने वह तिलिस्मी खंजर, जो मन्दिर के नीचे वाले तहखाने में पाया था, आनन्दसिंह के हाथों में दे दिया और आगे बढ़कर उस आदमी से पूछा, "यहाँ से एक औरत के चिल्लाने की आवाज आई थी, वह कहाँ है?"

बुड्ढा—(इधर-उधर देख के) यहाँ तो कोई औरत नहीं है।

इन्द्रजीतसिंह—अभी-अभी हम दोनों ने उसकी आवाज सुनी थी।

बुड्ढा—बेशक सुनी होगी, मगर मैं ठीक कहता हूँ कि यहाँ पर कोई औरत नहीं है।

इन्द्रजीतसिंह—तो फिर वह आवाज किसकी थी ?

बुड्ढा—वह आवाज मेरी ही थी।

आनन्दसिंह—(सिर हिला कर) कदापि नहीं।

इन्द्रजीतसिंह—मुझे इस बात का विश्वास नहीं हो सकता। आपकी आवाज वैसी नहीं है जैसी वह आवाज थी।

बुड्ढा—जो मैं कहता हूँ उसे आप विश्वास करें या यह बतावें कि आपको मेरी बात का विश्वास क्योंकर होगा? क्या मैं फिर उसी तरह से बोलूँ?

इन्द्रजीतसिंह—हाँ यदि ऐसा हो तो हम लोग आपकी बात मान सकते हैं।

बुड्ढा—(उसी तरह से और वे ही शब्द अर्थात्—'अच्छा-अच्छा तू मेरा सिर काट ले'—इत्यादि बोल कर) देखिये वे ही शब्द और उसी ढंग की आवाज है या नहीं?

आनन्दसिंह—(ताज्जुब से) बेशक वही शब्द और ठीक वैसी ही आवाज है।

इन्द्रजीतसिंह—मगर इस ढंग से बोलने की आपको क्या आवश्यकता थी?

बुड्ढा—मैं इस तिलिस्म में कल से चारों तरफ घूम-घूमकर आपको खोज रहा हूँ। सैकड़ों आवाजें दीं और बहुत उद्योग किया मगर आप लोगों से मुलाकात न हुई। तब मैंने सोचा कदाचित् आप लोगों ने यह सोच लिया हो कि इस तिलिस्म के कारखाने की आवाज का उत्तर देना उचित नहीं है और इसी से आप मेरी आवाज पर ध्यान नहीं देते। आखिर मैंने यह तरकीब निकाली और इस ढंग से बोला जिसमें सुनने के साथ ही आप बेताब हो जायँ और स्वयं ढूँढ़ कर मुझसे मिलें, और आखिर जो कुछ मैंने सोचा था वही हुआ।

इन्द्रजीतसिंह—आप कौन हैं और मुझे यों बुला रहे थे?