उसके यहाँ रहने वाले लोग मेरी खूब इज्जत करते और जो कुछ मैं कहती, उसे तुरन्त ही मान लेते, मगर मैं उस मकान के हाते के बाहर जाने का इरादा नहीं कर सकती थी। कभी अगर ऐसा करती तो सभी लोग मना करते और रोकने को तैयार हो जाते।
इसी तरह वहाँ रहते मुझे कई दिन बीत गये। एक दिन जब मनोरमा रथ पर सवार होकर कहीं बाहर गई थी, मैं समझती हूँ कि मायारानी से मिलने गई होगी, संध्या के समय जब थोड़ा-सा दिन बाकी था, मैं धीरे-धीरे बाग में टहल रही थी कि यकायक किसी का फेंका हुआ पत्थर का छोटा-सा टुकड़ा मेरे सामने आकर गिरा था। जब मैंने ताज्जुब से उसे देखा तो उसमें बँधे कागज के एक पुरजे पर मेरी निगाह पड़ी। मैंने झट उठा लिया और पुर्जा खोलकर पढ़ा, उसमें यह लिखा हुआ था––
"अब मुझे निश्चय हो गया कि तू 'इन्दिरा' है, अब तुझे होशियार करे देता हूँ और कहे देता हूँ कि तू वास्तव में मायारानी की सखी मनोरमा के फन्दे में फँसी हुई है। यह तेरी माँ बनकर तुझे फँसा लाई है और राजा गोपालसिंह के दारोगा की इच्छानुसार अपना काम निकालने के बाद तुझे मार डालेगी। मुझे जो कुछ कहना था कह दिया, अब जो तू उचित समझे कर। तुझे धर्म की शपथ है, इस पुर्जे को पढ़कर तुरन्त फाड़ दे।" मैंने उस पुर्जे को पढ़ने के बाद उसी समय टुकड़े-टुकड़े करके वहीं फेंक दिया और घबरा कर चारों तरफ देखने अर्थात् उस आदमी को ढूँढ़ने लगी जिसने वह पत्थर का टुकड़ा फेंका था, मगर कुछ पता न लगा और न कोई मुझे दिखाई ही पड़ा।
उस पुर्जे के पढ़ने से जो कुछ मेरी हालत हुई, मैं बयान नहीं कर सकती। उस समय मैं मनोरमा के विषय में ज्यों-ज्यों पिछली बातों पर ध्यान देने लगी, त्यों-त्यों मुझे निश्चय होता गया कि यह वास्तव में मनोरमा है, मेरी माँ नहीं। और अब अपने किये पर पछताने और अफसोस करने लगी कि क्यों उस खोह के बाहर पैर रखा और आफत में फँसी?
उसी समय से मेरे रहन-सहन का ढंग भी बदल गया और मैं दूसरी ही फिक्र में पड़ गई। सबसे ज्यादा फिक्र मुझे उसी आदमी का पता लगाने की हुई जिसने वह पुर्जा मेरी तरफ फेंका था। मैं उसी समय वहाँ से हटकर मकान में चली गई, इस खयाल से कि जिस आदमी ने मेरी तरफ वह पुर्जा फेंका था और उसे फाड़ डालने के लिए कसम दी थी, वह जरूर मनोरमा से डरता होगा और यह जानने के लिए कि मैंने पुर्जा फाड़कर फेंक दिया या नहीं, उस जगह पर जरूर जायगा जहाँ (बाग में) टहलते समय मुझे पुर्जा मिला था।
जब मैं छत पर चढ़कर और छिपकर उस तरफ देखने लगी जहाँ मुझे वह पुर्जा मिला था तो एक आदमी को धीरे-धीरे टहलकर उस तरफ जाते देखा। जब वह उस ठिकाने पर पहुँच गया तब उसने इधर-उधर देखा और सन्नाटा पाकर पुर्जे के उन टुकड़ों को चुन लिया जो मैंने फेंके थे और उन्हें कमर में छिपाकर उसी तरह धीरे-धीरे टहलता हुआ उस मकान की तरफ चला आया जिसकी छत पर से मैं यह सब तमाशा देख रही थी। जब वह मकान के पास पहुँचा, तब मैंने उसे पहचान लिया। मनोरमा से बातचीत