पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/१८१

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बात कही थीं, मगर अब यह सोचना चाहिए कि मुकदमा तय होने के पहले माँगने का मौका क्योंकर मिल सकता है।

भूतनाथ––मेरे दिल ने भी उस समय यही कहा था, मगर दो बातों के ख्याल से मुझे प्रसन्न होने का समय नहीं मिलता।

बलभद्रसिंह––वह क्या?

भूतनाथ––एक तो यही कि मुकदमा होने के पहले इनाम में उस सन्दूकड़ी के माँगने का मौका मुझे मिलेगा या नहीं, और दूसरे यह कि नकाबपोश ने इस समय यह बात सच्चे दिल से कही थी या केवल जयपाल को सुनाने की नीयत से। साथ ही इसके एक बात और भी है।

बलभद्रसिंह––वह भी कह डालो।

भूतनाथ––आज आखिरी मर्तबे दूसरे नकाबपोश ने जो सूरत दिखाई थी उसके बारे में मुझे कुछ भ्रम-सा होता है। शायद मैंने उसे कभी देखा है, मगर कहाँ और कब, सो नहीं कह सकता।

बलभद्रसिंह––हाँ, उस सूरत के बारे में तो अभी तक मैं भी गौर कर रहा हूँ, मगर अक्ल तब तक कुछ ठीक काम नहीं कर सकती, जब तक उन नकाबपोशों का कुछ हाल मालूम न हो जाये।

भूतनाथ––मेरी तो यही इच्छा होती है कि उनका असल हाल जानने के लिए उद्योग करूँ, बल्कि कल मैं अपने आदमियों को इस काम के लिए मुस्तैद भी कर चुका हूँ।

बलभद्रसिंह––अगर कुछ पता लगा सको तो बहुत ही अच्छी बात है, सच तो यही है कि मेरा दिल भी खुटके से खाली नहीं है।

भूतनाथ––इस समय से संध्या तक और इसके बाद रात भर मुझे छुट्टी है, यदि आप आज्ञा दें तो मैं जवाब दे लूँगा।

बलभद्रसिंह––कोई चिन्ता नहीं, तुम जाओ! अगर महाराज का कोई आदमी खोजने आवेगा, तो मैं इस फिक्र में जाऊँ।

भूतनाथ––बहुत अच्छा। इतना कहकर भूतनाथ उठा और अपने दोनों आदमियों में से एक को साथ लेकर मकान के बाहर हो गया।


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तिलिस्मी इमारत से लगभग दो कोस दूरी पर जंगल में पेड़ों की घनी झुरमुट के अन्दर बैठा हुआ भूतनाथ अपने दो आदमियों से बातें कर रहा है।

भूतनाथ––तो क्या तुम उनके पीछे-पीछे उस खोह के मुहाने तक चले गये थे?

एक आदमी––जी नहीं, थोड़ी देर तक तो मैं उन नकाबपोशों के पीछे-पीछे