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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/६

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और वह उसी समय वहाँ से टलकर कहीं छिप रही, फिर भी जब तक राजा वीरेन्द्रसिंह वहाँ से चुनारगढ़ की तरफ रवाना न हुए तब तक वह भी उस इलाके के बाहर न गई और इसी से शिवदत्त और कल्याणसिंह (जो बहुत से आदमियों को लेकर रोहतासगढ़ के तहखाने में घुसे थे) वाला मामला भी उसे बखूबी मालूम हो गया था।

माधवी, मनोरमा, और शिवदत्त ने जब ऐयारों की मदद से कल्याणसिंह को छुड़ाया था तो भीमसेन भी उसी के साथ ही छुड़ाया गया, मगर भीमसेन कुछ बीमार था इसलिए शिवदत्त के साथ मिल-जुलकर के रोहतासगढ़ तहखाने में न जा सका था, शिवदत्त ने अपने ऐयारों की हिफाजत में उसे शिवदत्तगढ़ भेज दिया था।

सब बखेड़ों से छुट्टी पाकर जब राजा वीरेन्द्रसिंह कैदियों को लिए हुए चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए तो मायारानी को कैद से छुड़ाने को फिक्र में लीला भी भेष बदले हुए उन्हों के लश्कर के साथ रवाना हुई। लश्कर में नकली किशोरी, कामिनी और कमला के मारे जाने वाला मामला उसके सामने ही हुआ और तब तक उसे अपनी कार्रवाई करने का कोई मौका न मिला मगर जब नकली किशोरी, कामिनी और कमला की दाहक्रिया करके राजा साहब आगे बढ़े और दुश्मनों की तरफ से कुछ बेफिक्र हुए तब लीला को भी अपनी कार्रवाई का मौका मिला और वह उस खेमे के चारों तरफ ज्यादा फेरे लगाने लगी जिसमें मायारानी कैद थी और चालीस आदमी नंगी तलवारे लिए बारी-बारी से उसके चारों तरफ पहरा दिया करते थे। एक दिन इत्तिफाक से आंधी-पानी का जोर हो गया और इसी से उस कम्गख्त को अपने काम का अच्छा मौका मिला।

वीरेन्द्रसिंह का लश्कर एक सुहावने जंगल में पड़ा हुआ था। समय बहुत अच्छा था, संध्या होने के पहले ही से बादलों का शामियाना खड़ा हो गया था, बिजली चमकने लग गई थी, और हवा के झपेटे पेड़-पत्तों के साथ हाथापाई कर रहे थे। पहर रात जाते-जाते पानी अच्छी तरह बरसने लग गया और उसके बाद तो आँधी-पानी ने एक भयानक तूफान का रूप धारण कर लिया। उस समय लश्कर वालों को बहुत ही तकलीफ हुई। हजारों सिपाही, गरीब बनिये, घसियारे और शागिर्द पेशे वाले जो मैदान में सोया करते थे इस तूफान से दुःखी होकर जान बचाने की फिक्र करने लगे। यद्यपि राजा वीरेन्द्रसिंह की रहमदिली और रिआयापरवरी ने बहुतों को आराम दिया और बहुत से आदमी खेमों और शामियानों के अन्दर घुस गये यहां तक कि राजा वीरेन्द्र सिंह और तेजसिंह के खेमों में भी सैकड़ों को पनाह मिल गई मगर फिर भी हजारों आदमी ऐसे रह गये थे जिनकी भौंडी किस्मत में दुःख भोगना बदा था। यह सब-कुछ था मगर लीला को ऐसे समय भी चैन न था और वह दुःख को दुःख नहीं समझती थी, क्योंकि उसे अपना काम साधने के लिए बहुत दिनों बाद आज यही एक मौका अच्छा मालूम हुआ।

जिस खेमे में मायारानी और दारोगा वगैरह कैद थे, उससे चालीस या पचास हाथ की दूरी पर सलई का एक बड़ा और पुराना दरख्त था। इस आँधी-पानी और तूफान का खौफ न करके लीला उसी पेड़ पर चढ़ गई और कैदियों के खेमे की तरफ मुंह करके तिलिस्मी तमंचे का निशाना साधने लगी। जब-जब बिजली चमकती तब-तब वह अपने निशाने को ठीक करने का उद्योग करती। सम्भव था कि बिजली की चमक में कोई उसे