पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१०१

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कहता हूँ कि मेरे सामने से उठ जा और फिर कभी अपना काला मुंह मुझे मत दिखाना। जिस कुल को तू पहले कलंक लगा चुकी है अब भी उसी कुल की बदनामी का सबब बन कर दुनिया की हवा खा ।

रामदेई के पास भूतनाथ की बातों का जवाब न था । वह अपनी पुरानी चिट्ठी का सच्चा परिचय सुन कर ददहवास हो गई और समझ गई कि उसके अच्छे नसीब के पहिए की धुरी टूट गई जिसे अब किसी तरह भी नहीं बना सकती। वह अपने धड़कते हुए कलेजे और कांपते गए बदन के साथ भूतनाथ की बातें सुनती रही और अन्त में उठने का साहस करने पर भी अपनी जगह से न हिल सकी। मगर भूतनाथ वहाँ से उठ खड़ा हुआ और बँगले की तरफ चल पड़ा। थोड़ी ही दूर गया होगा कि देवीसिंह से मुलाकात हुई जिसने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, "भूतनाथ, शाबाश ! शाबाश ! जो कुछ नेक और बहादुर आदमियों को करना चाहिए, इस समय तुमने वही किया। मैं छिप कर तुम्हारी सब बातें सुन रहा था । अगर तुम कुछ बेजा काम करना चाहते तो मैं तुम्हें जरूर रोकता, मगर ऐसा करने का मौका न हुआ, जिससे मैं बहुत ही खुश हूँ। अच्छा जाओ, अपने कमरे में जाकर आराम करो, मैं अब इन्द्रदेव के पास जाता हूँ।"


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रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है, एक सुन्दर सजे हुए कमरे में राजा गोपाल- सिंह और इन्द्रदेव बैठे हैं और उनके सामने नानक हाथ जोड़े बैठा दिखाई देता है।

गोपालसिंह--(नानक से) ठीक है, यद्यपि इन बातों में तुमने अपनी तरफ से कुछ नमक--मिर्च जरूर लगाया होगा, मगर फिर भी मुझे कोई ऐसी बात नहीं जान पड़ती जिससे भूतनाथ को दोषी ठहराऊँ। उसने जो कुछ तुम्हारी माँ से कहा सच कहा और उसके साथ जैसा बर्ताव किया वह उचित ही था। इस विषय में मैं भूतनाथ को कुछ भी नहीं कह सकता और न अब तुम्हारी बातों पर भरोसा ही कर सकता हूँ। बड़े अफसोस की बात है कि मेरी नसीहत ने तुम्हारे दिल पर कुछ भी असर न किया और अगर कुछ किया भी तो वह दो-चार दिन बाद जाता रहा। अगर तुम अपनी मां के साथ नन्हीं के मकान में गिरफ्तार न हुए होते तो कदाचित् मैं तम्हारे धोखे में आ जाता, मगर अब मैं किसी तरह भी तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।

नानक--मगर आप मेरा कसूर माफ कर चुके हैं और

इन्द्रदेव--(नानक से) अगर तुम उस माफी को पाकर खुश हुए थे तो फिर पुराने रास्ते पर क्यों गये और पुनः अपनी को लेकर नन्हीं के पास क्यों पहुंचे ? तुम्हें बात करते शर्म नहीं आती!


1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, उन्नीसवाँ भाग, तीसरा क्यान।