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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१०६

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निकलवा कर चुनार पहुंचाना, सो यह काम दो दिन के बाद भी होगा तो कोई हर्ज नहीं।

इन्द्रदेव--जैसी आज्ञा!

इतना कहकर इन्द्रदेव थोड़ी देर के लिए कहीं चले गए और तब भैरोंसिंह तथा तारासिंह को साथ लिए आकर बोले, "भोजन तैयार है।"

सब लोग वहाँ से उठे और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए । जिस तरह इन्द्रदेव इन लोगों को अपने स्थान में ले आए थे, उसी तरह पुनः उस तिलिस्मी बाग में ले गए, जिसमें से लाए थे।

जब महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैरह उस बारहदरी में पहुँचे, जिसमें पहले दिन आराम किया था और जहाँ बाजे की आवाज सुनी थी, तब दिन पहर भर से कुछ ज्यादा बाकी था। जीतसिंह ने इन्द्रदेव से पूछा, “अब क्या करना चाहिए?"

इन्द्रदेव--यदि महाराज आज की रात यहाँ रहना पसन्द करें, तो एक दूसरे वाग में चलकर वहाँ की कुछ कैफियत दिखाऊँगा!

जीतसिंह--बहुत अच्छी बात है, चलिए।

इतना सुनकर इन्द्रदेव ने उस बारहदरी की कई आलमारियों में से एक आल- मारी खोली और उसके अन्दर जाकर सभी को अपने पीछे आने का इशारा किया। यहाँ एक गली की तौर पर रास्ता बना हुआ था, जिसमें सब कोई इन्द्रदेव की इच्छानुसार बेखौफ चले गए और थोड़ी दूर जाने के बाद जब इन्द्रदेव ने दूसरा दरवाजा खोला, तब उसके बाहर होकर सभी ने अपने को एक छोटे बाग में पाया, जिसकी बनावट कुछ विचित्र ही ढंग की थी। यह बाग जंगली पौधों की सब्जी से हरा-भरा मा और पानी का चश्मा भी बह रहा था, मगर चारदीवारी के अतिरिक्त और किसी तरह की बड़ी इमारत इसमें न थी, हाँ बीच में एक बहुत बड़ा चबूतरा जरूर था, जिस पर धूप और बरसाती पानी के लिए सिर्फ मोटे-मोटे बारह खम्भों के सहारे पर छत बनी हुई थी और चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों तरफ सीढ़ियाँ थीं।

यह चबूतरा कुछ अजीब ढंग का बना हुआ था। लगभग चालीस हाथ के चौड़ा और इतना ही लम्बा होमा। इसके फर्श में लोहे की बारीक नालियां जाल की तरह जड़ी हुई थीं और बीच में एक चौखूटा स्याह पत्थर इस अन्दाज का रखा था, जिस पर चार आदमी बैठ सकते थे । बस, इसके अतिरिक्त इस चबूतरे में और कुछ भी न था।

थोड़ी देर तक सब कोई उस चबूतरे की बनावट देखते रहे, इसके बाद इन्द्रदेव ने महाराज से कहा, "तिलिस्म बनाने वालों ने यह बगीचा केवल तमाशा देखने के लिए बनाया था । यहाँ की कैफियत आपके साथ रहकर मैं नहीं दिखा सकता । हाँ, यदि आप मुझे दो-तीन पहर की छुट्टी दें तो!"

इन्द्रदेव की बात महाराज ने मंजूर कर ली और तब वह (इन्द्रदेव) सभी के देखते देखते चौखूटे पत्थर के ऊपर चले गए जो चबूतरे के बीच में जड़ा हुआ था । सवार होने साथ ही वह पत्थर हिला और इन्द्रदेव को लिए हुए जमीन के अन्दर चला गया, मगर थोड़ी देर में पुनः ऊपर चला आया और अपने ठिकाने पर ज्यों का त्यों बैठ गया लेकिन इस समय इन्द्रसेन उस पर न थे ।