नानक-मैं उसका सिर भी काट कर तुम्हारे सामने लाऊँगा और तब तुमसे आशीर्वाद लूंगा।
रासदेई-शाबाश, ईश्वर तेरा भला करे ! मैं समझती हूँ कि इन बातों के लिए तू एक दफा फिर कसम खा जिसमें मेरी पूरी दिलजमई हो जाय।
नानक--(सूर्य की तरफ हाथ उठाकर) मैं त्रिलोकीनाथ के सामने हाथ उठाकर कसम खाता हूँ कि अपनी माँ की इच्छा पूरी करूँगा और जब तक ऐसा न कर लूंगा, अन्न न खाऊँगा।
रामदेई--(नानक की पीठ पर हाथ फेरकर) बस-बस, अब मैं प्रसन्न हो गई और मेरा आधा दुःख जाता रहा।
नानक--अच्छा, तो फिर यहाँ से उठो। (हाथ का इशारा करके) किसी तरह उस गांव में पहुँचना चाहिए, फिर सब बन्दोबस्त होता रहेगा।
दोनों उठे और एक गाँव की तरफ रवाना हुए जो वहां से दिखाई दे रहा था।
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पाठक, आपने सुना कि नानक ने क्या प्रण किया ? अतः अब यहाँ पर हम यह कह देना उचित समझते हैं कि नानक अपनी मां को लिये हुए जब घर पहुंचा तो वहाँ उसने एक दिन के लिए भी आराम न किया। ऐयारी का बटुआ तैयार करने के बाद हर तरह का इन्तजाम करके और चार-पांच शागिर्दो और नौकरों को साथ लेकर वह उसी दिन घर के बाहर निकला और चुनार की तरफ रवाना हुआ। जिस दिन कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की बारात निकलने वाली थी उस दिन वह चुनार की सरहद में मौजूद था। वारात की कैफियत उसने अपनी आँखों से देखी थी और इस बात की फिक्र में भी लगा हुआ था कि किसी तरह दो-चार कैदियों को कैद से छुड़ा कर अपना साथी बना लेना चाहिए और मौका मिलने पर राजा गोपालसिंह को भी इस दुनिया से उठा देना चाहिए।
अब हम कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल बयान करते हैं।
दोपहर दिन का समय है और सब कोई भोजन इत्यादि से निश्चिन्त हो चुके हैं।
एक सजे हुए कमरे में राजा गोपालसिंह, भरतसिंह, कुंअर आन्दसिंह, भैरोंसिंह और तारासिंह बैठे हुए हँसी-खुशी की बातें कर रहे हैं।
गोपालसिंह-(भरतसिंह से) क्या मुझे स्वप्न में भी इस बात की उम्मीद हो सकती थी कि आपसे किसी दिन मुलाकात होगी? कदापि नहीं, क्योंकि लोगों के कहने पर मुझे विश्वास हो गया कि आप जंगल में डाकुओं के हाथ से मारे गए
भरतसिंह--और इसका बहुत बड़ा सबब यह था कि तब तक दारोगा की बेई- मानी का आपको पता न लगा था, उसे आप ईमानदार समझते थे और उसी ने मुझे कैद किया था।