के समय जब वह मेरे पैरों में तेल लगा रहा था मुझसे कहा कि "राजा गोपालसिंह की शादी असली लक्ष्मीदेवी के साथ नहीं बल्कि किसी दूसरी ही औरत के साथ हुई है। यह काम दारोगा ने रिश्वत लेकर किया है और इस काम में सुविधा करने के लिए गोपाल- सिंहजी के पिता को भी उसी ने मारा है।"
सुनने के साथ ही मैं चौंक पड़ा, मेरे ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा, मैंने उससे तरह-तरह के सवाल किए जिनका जवाब उसने ऐसा तो न दिया जिससे मेरी दिलजमई हो जाती, मगर इस बात पर बहुत जोर दिया कि "जो कुछ मैं कह चुका हूँ, वह बहुत ठीक है।"
मेरे जी में तो यही आया कि इसी समय उठकर राजा गोपालसिंह के पास जाऊँ,और सब हाल कह दूं, परन्तु यह सोचकर कि किसी काम में जल्दी न करनी चाहिए मैं चुप रह गया और सोचने लगा कि यह कार्रवाई क्योंकर हुई और इसका ठीक-ठीक पता किस तरह लग सकता है ?
रात-भर मुझे नींद न आई और इन्हीं बातों को सोचता रह गया। सवेरा होने पर स्नान-संध्या इत्यादि से छुट्टी पाकर मैं राजा साहब से मिलने के लिए गया, मालूम हुआ कि राजा साहब अभी महल से बाहर नहीं निकले हैं। मैं सीधे महल में चला गया। उस समय गोपालसिंहजी संध्या कर रहे थे और इनसे थोड़ी दूर पर सामने बैठी मायारानी फूलों का गजरा तैयार कर रही थी। उसने मुझे देखते ही कहा, "अहा, आज क्या बात है ! मालूम होता है मेरे लिए आप कोई अनूठी चीज लाए हैं।"
इसके जवाब में मैं हँसकर चुप हो गया और इशारा पाकर गोपालसिंहजी के पास एक आसन पर बैठ गया। जब वे संध्योपासना से छुट्टी पा चुके तब मुझसे बातचीत होने लगी। मैं चाहता था कि मायारानी वहाँ से उठ जाये तब मैं अपना मतलब बयान करूँ,पर वह वहाँ से उठती न थी और चाहती थी कि मैं जो कुछ बयान करूँ, उसे वह भी सुन ले । यह सम्भव था कि मैं मामूली बातें करके मौका टाल देता और वहाँ से उठ खड़ा होता मगर वह हो न सका, क्योंकि उन दोनों ही को इस बात का विश्वास हो गया था कि मैं जरूर कोई अनूठी बात कहने के लिए आया हूँ। लाचार गोपालसिंहजी से इशारे में कह देना पड़ा कि 'मैं एकान्त में केवल आप ही से कुछ कहना चाहता हूँ।' जब गोपालसिंह ने किसी काम के बहाने से उसे अपने सामने से उठाया तब वह भी मेरा मतलब समझ गई और मुंह बनाकर उठ खड़ी हुई।
हम दोनों यही समझते थे कि मायारानी वहाँ से चली गई, मगर उस कम्बख्त ने हम दोनों की बातें सुन लीं, क्योंकि उसी दिन से मेरी कम्बख्ती का जमाना शुरू हो गया। मैं ठीक नहीं कह सकता कि किस ढंग से उसने हमारी बातें सुनीं। जिस जगह हम दोनों बैठे थे, उसके पास ही दीवार में एक छोटी-सी खिड़की पड़ती थी, शायद उसी जगह पिछवाड़े की तरफ खड़ी होकर उसने मेरी बातें सुन ली हों तो कोई ताज्जुब नहीं।
मैंने जो कुछ अपने नौकर से सुना था, सब तो नहीं कहा, केवल इतना कहा कि"आपके पिता को दारोगा ने ही मारा है और लक्ष्मीदेवी की इस शादी में भी उसने कुछ गड़बड़ किया है, गुप्त रीति पर इसकी जांच करनी चाहिए।" मगर अपने नौकर का नाम