चन्द्रकान्ता सन्तति
चौबीसवाँ भाग
1
दिन घंटे भर से ज्यादा चढ़ चुका है। महाराज सुरेन्द्रसिंह सुनहरी चौकी पर बैठे दातुन कर रहे हैं और जीतसिंह, तेजसिंह, इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह, देवीसिंह, भूतनाथ और राजा गोपालसिंह उनके सामने की तरफ बैठे हुए इधर-उधर की बातें कर रहे हैं। रात महाराज की तबीयत कुछ खराब थी, इसलिए आज स्नान-संध्या में देर हो गई है।
सुरेन्द्रसिंह--(गोपालसिंह से) गोपाल, इतना तो हम जरूर कहेंगे कि गद्दी पर वैठने के बाद तुमने कोई बुद्धिमानी का काम नहीं किया, बल्कि हर एक मामले में तुमसे भूल ही होती गई है।
गोपालसिंह--निःसन्देह ऐसा ही है और उस लापरबाही का नतीजा भी मुझे वैसा ही भोगना पड़ा। वीरेन्द्रसिंह धोखा खाये बिना कोई होशियार नहीं होता। कैद से छूटने के बाद तुमने बहुत से अनूठे काम भी किये हैं। हाँ, यह तो बताओ कि दारोगा और जयपाल के लिए तुमने क्या सजा तजवीज की है?
गोपालसिंह--इस बारे में दिन-रात सोचा ही करता हूँ मगर कोई सजा ऐसी नहीं सूझती जो उन लोगों के लायक हो और जिससे मेरा गुस्सा शान्त हो।
सुरेन्द्रसिंह--(मुस्कुरा कर) मैं तो समझता हूँ कि यह काम भूतनाथ के हवाले किया जाय, यही उन शैतानों के लिए कोई मजेदार सजा तजवीज करेगा। (भूतनाथ की तरफ देख के) क्यों जी, तुम कुछ बात सकते हो?
भूतनाथ--(हाथ जोड़ के) उनके योग्य क्या सजा है इसका बताना तो बड़ा ही कठिन है, मगर एक छोटी सी सजा मैं जरूर बात सकता हूँ।
गोपालसिंह--वह क्या?
भूतनाथ--पहले तो उन्हें कच्चा पारा खिलाना चाहिए जिसकी गरमी से उन्हें सख्त तकलीफ हो और तमाम बदन फूट जाय, जब जख्म खूब मजेदार हो जाये तो नित्य लाल मिर्च और नमक का लेप चढ़ाया जाय । जब तक वे दोनों जीते रहें तब तक ऐसा ही होता रहे।