पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/२३

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बहुत किया और बिगाड़ा भी बहुत, परन्तु सच्चा सुख नाम मात्र के लिए एक दिन भी न मिला और न किसी को मुंह दिखाने की अभिलाषा ही रह गई। अन्त में न मालूम किस जन्म का पुण्य सहायक हुआ जिसने मेरे रास्ते को बदल दिया और जिसकी बदौलत आज मैं इस दर्जे को पहुँचा। अब मुझे किसी बात की परवाह न रही। आज तक जो मुझसे दुश्मनी रखते थे, कल से वे मेरी खुशामद करेंगे, क्योंकि दुनिया का कायदा ही ऐसा है। महाराज इस बात का भी निश्चय रखें कि उस पीतल की सन्दूकड़ी से महाराज या महाराज के पक्षपातियों का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, जो नकली बलभद्रसिंह की गठरी में से निकली है और जिसके बयान ही से मेरे रोंगटे खड़े होते हैं । मैं उस भेद को भी महाराज से छिपाना नहीं चाहता, हाँ, यह अच्छा है कि सर्वसाधारण में वह भेद न फैलने पाये। मैंने उसका कुछ हाल देवी सिंह से कह दिया है, आशा है कि वे महाराज से जरूर अर्ज करेंगे।

जीतसिंह--खैर, उसके लिए तुम चिन्ता न करो, जैसा होगा देखा जायेगा। अब अपने डेरे पर जाकर आराम करो, महाराज भी आज रात भर जागते ही रहे हैं।

गोपालसिंह--जी हाँ, अब तो नाममात्र को रात बच गई होगी।

इतना कहकर राजा गोपालसिंह उठ खड़े हुए और सबको साथ लिए हुए कमरे के बाहर चले गये।


3

इस समय रात बहुत कम बाकी थी और सुबह की सफेदी आसमान पर फैलना ही चाहती थी। और लोग तो अपने-अपने ठिकाने चले गए और दोनों नकाबपोशों ने भी अपने घर का रास्ता लिया, मगर भूतनाथ सीधे देवीसिंह के डेरे पर चला गया। दरवाजे पर ही पहरेवाले की जुबानी मालूम हुआ कि वे सोये हैं परन्तु देवीसिंह को न मालूम किस तरह भूतनाथ के आने की आहट मिल गई (शायद जागते हों)अतः वे तुरन्त बाहर निकल आए और भूतनाथ का हाथ पकड़कर कमरे के अन्दर ले गए। इस समय वहाँ केवल एक शमादान की मद्धिम रोशनी हो रही थी, दोनों आदमी फर्श पर बैठ गए और यों बातचीत होने लगी-

देवीसिंह–कहो, इस समय तुम्हारा आना कैसे हुआ? क्या कोई नई बात हुई?

भूतनाथ-बेशक नई बात हुई और वह इतनी खुशी की हुई है जिसके योग्य मैं नहीं था।

देवीसिंह—(ताज्जुब से) वह क्या ?

भूतनाथ-आज महाराज ने मुझे अपना ऐयार बना लिया और इस इज्जत के लिए मुझ अपना खंजर भी बख्शा है ।

इतना कहकर भूतनाथ ने महाराज का दिया हुआ बंजर और जीतसिंह तथा गोपालसिंह का दिया हुआ बटुआ और तमंचा देवीसिंह को दिखाया और कहा, "इसी