भूतनाथ--क्या आज की रात भूखे-प्यासे ही बितानी पड़ेगी?
इन्द्रजीतसिंह--(मुस्कुराते हुए) प्यासे तो नहीं कह सकते, क्योंकि पानी का चश्मा बह रहा है जितना चाहो पी सकते हो, मगर खाने के नाम पर तब तक कुछ नहीं मिल सकता जब तक कि हम चुनारगढ़ वाले तिलिस्मी चबूतरे से बाहर न हो जायें ।
जीतसिंह--खैर, कोई चिन्ता नहीं, ऐयारों के बटुए खाली न होंगे, कुछ-न-कुछ खाने की चीजें उनमे जरूर होंगी।
सुरेन्द्र सिंह--अच्छा, अब जरूरी कामों से छुट्टी पाकर किसी दालान में आराम करने का बन्दोबस्त करना चाहिए ।
महाराज की आज्ञानुसार सब कोई जरूरी कामों से निपटने की फिक्र में लगे और इसके बाद एक दालान में आराम करने के लिए बैठ गये। खास-खास लोगों के लिए ऐयारों ने अपने सामान में से बिस्तरे का इन्तजाम कर दिया।
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यह दालान जिसमें इस समय महाराज सुरेद्रसिंह वगैरह आराम कर रहे हैं,बनिस्बत उस दालान के, जिसमें ये लोग पहले-पहल पहुंचे थे, वड़ा और खूबसूरत बना हुआ था। तीन तरफ दीवार थी और बाग की तरफ तेरह खम्भे और महराब लगे हुए थे जिससे इसे वारहदरी भी कह सकते हैं। इसकी कुर्सी लगभग ढाई हाथ के ऊँची थी और इसके ऊपर चढ़ने के लिए पांच सीढ़ियाँ बनी हुई थी। बारहदरी के आगे की तरफ कुछ सहन छूटा हुआ था जिसकी जमीन (फर्श) संगमर्मर और संगमूसा के चौखूटे पत्थरों से बनी हुई थी। बारहदरी की छत में मीनाकारी का काम किया हुआ था और तीनों तरफ की दीवारों में कई आलमारियाँ भी थीं।
रात पहर भर से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। इस बारहदरी में, जिसमें सब कोई आराम कर रहे थे, एक आलमारी की कार्निस के ऊपर मोमबत्ती जल रही थी जो देवी-सिंह ने अपने ऐयारी के बटुए में से निकालकर जलाई थी। किसी को नींद नहीं आयी थी बल्कि सब लग बैठे हुए आपस में बातें कर रहे थे। महाराज सुरेन्द्रसिंह बाग की तरफ मुंह किए बैठे थे और उन्हें सामने की पहाड़ी का आधा हिस्सा भी, जिस पर इस समय अन्धकार की बारीक चादर पड़ी हुई थी, दिखाई दे रहा था। उस पहाड़ी पर यकायक मशाल की रोशनी देखकर महाराज चौके और सभी को उस तरफ देखने का इशारा किया।
सभी ने उस रोशनी की तरफ ध्यान दिया और दोनों कुमार ताज्जुब के साथ सोचने लगे कि यह क्या मामला है ? इस तिलिस्म में हमारे सिवाय किसी गैर आदमी का आना कठिन ही नहीं बल्कि एकदम असम्भव है, तब फिर यह मशाल की रोशनी कैसी ! खाली रोशनी ही नहीं, बल्कि उसके पास चार-पांच आदमी भी दिखाई देते हैं।