पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/६९

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देवीसिंह-यद्यपि मैं बहुत दिनों से आपको भाई की तरह मानने लग गया हूँ,परन्तु आज यह जानकर मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा कि आप वास्तव में मेरे भाई हैं, मगर यह तो बताइए कि ऐसी अवस्था में शेरसिंह आपके भाई क्योंकर हुए? वह कौन हैं ?

भूतनाथ–वास्तव में शेरसिह मेरा सगा भाई नहीं है, बल्कि गुरुभाई और उन्हीं ब्रह्मचारीजी का लड़का है, मगर हाँ, लड़कपन ही से एकसाथ रहने के कारण हम दोनों में भाई-जैसी मुहब्बत हो गई थी।

तेजसिंह-आजकल शेरसिंह कहाँ हैं ?

भूतनाथ-मुझे उनकी कुछ भी खबर नहीं है, मगर मेरा दिल गवाही देता है कि अब वे हम लोगों को दिखाई न देंगे।

वीरेन्द्रसिंह–सो क्यों ?

भूतनाथ—इसीलिए कि वे भी अपने को छिपाये और हम लोगों से मिले-जुले रहते और साथ ही इसके ऐबों से खाली न थे।

सुरेन्द्रसिंह-खैर, कोई चिन्ता नहीं, अच्छा तब ?

भूतनाथ -अतः मैं उन्हीं ब्रह्मचारीजी के पास रहने लगा। कई वर्ष बीत गए।पिताजी मुझसे मिलने के लिए कभी-कभी आया करते थे, और जब मैं बड़ा हुआ तो उन्होंने मुझे अपने से जुदा करने का सबब भी बयान किया और वे यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए कि मैं ऐयारी के फन में बहुत तेज औरहोशियार हो गया हूँ। उस समय उन्होंने ब्रह्मचारी जी से कहा कि इसे किसी रियासत में नौकर रख देना चाहिए तब इसकी ऐयारी खुलेगी।मुख्तसिर यह कि ब्रह्मचारीजी की ही बदौलत मैं गदाधरसिंह के नाम से रणधीरसिंहजी के यहाँ और शेरसिंह महाराज दिग्विजयसिंह के यहां नौकर हो गये और यह जाहिर किया गया कि शेरसिंह और गदाधरसिंह दोनों भाई हैं, और दोनों आपस में प्रेम भी ऐसा ही रखते थे।

उन दिनों रणधीरसिंहजी की जमींदारी में तरह-तरह के उत्पात मचे हुए थे और बहुत से आदमी उनके जानी दुश्मन हो रहे थे। उनके आपस वालों को तो इस बात का विश्वास हो गया था कि अब रणधीरसिंहजी की जान किसी तरह नहीं बच सकती, क्योंकि उन्हीं दिनों उनका ऐयार श्रीसिंह दुश्मनों के हाथों से मारा जा चुका था, और खूनी का कुछ पता नहीं लगता था । कोई दूसरा ऐयार भी उनके पास नहीं था, इसलिए वे बड़े ही तरदुद में पड़े हुए थे। यद्यपि उन दिनों उनके यहां नौकरी करना अपनी जान खतरे में डालना था, मगर मुझे इन बातों की कुछ भी परवाह न हुई। रणधीरसिंहजी भी मुझे नौकर रखकर बहुत प्रसन्न हुए। मेरी खातिरदारी में कभी किसी तरह की कमी नहीं करते थे। इसके दो सबब थे, एक तो उन दिनों उन्हें ऐयार की सख्त जरूरत थी, दूसरे मेरे पिता से और उनसे कुछ मित्रता भी थी जो कुछ दिन के बाद मुझे मालूम हुई ।

रणधीरसिंहजी ने मेरा ब्याह भी शीघ्र ही करा दिया। सम्भव है कि इसे भी मैं उनकी कृपा और स्नेह के कारण समझू, पर यह भी हो सकता है कि मेरे पैर में गृहस्थी की बेड़ी डालने और कहीं भाग जाने लायक न रखने के लिए उन्होंने ऐसा किया हो, क्योंकि