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निराला
के चर्मकार भाइयों पर रामजी की तपस्या का प्रभाव पड़ा हो, इसलिये उनका साहित्य ज़्यादा ठोस हुआ; चतुरी वगैरह लखनऊ के नज़दीक होने के कारण नव्वाबों के साए में आए हों। उन दिनों मैं गाँव रहता था। घर बग़ल में होने के कारण, घर बैठे हुए ही मालूम कर लिया कि चतुरी चतुर्वेदी आदिकों से संत-साहित्य का अधिक मर्मज्ञ है, केवल चिट्ठी लिखने का ज्ञान न होने के कारण एक-क्रिय होकर भी भिन्न-फल है—वे पत्र और पुस्तकों के संपादक हैं, यह जूतों का। एक रोज़ मैंने चतुरी आदि के लिए चरस मँगवाकर अपने ही दरवाज़े बैठक लगवाई। चतुरी उम्र में मेरे चाचाजी से कुछ ही छोटा होगा, कई घरों के लड़के-बच्चे-समेत 'चरस-रसिक रघुपति-पद-नेहू' लोध आदिकों के सहयोग से मजीरेदार डफलियाँ लेकर वह रात आठ बजे आकर डट गया। कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, पल्टूदास आदि ज्ञात-अज्ञात अनेकानेक संतों के भजन होने लगे। पहले मैं निर्गुण शब्द का केवल अर्थ लिया करता था, लोगों को 'निर्गुण पद है' कहकर संगीत की प्रशंसा करते हुए सुनकर हँसता था; अब गंभीर हो जाया करता हूँ—जैसी उम्र की बाढ़ के साथ अक़्ल बढ़ती है! मैं मचिया पर बैठकर भजन सुनने लगा। चतुर आचार्य-कंठ से लोगों को भूले पदों की याद दिला दिया करता। मुझे मालूम हुआ, चतुरी कबीर-पदावली का विशेषज्ञ है। मुझसे उसने कहा—"काका, ये निर्गुण-पद बड़े-बड़े विद्वान् नहीं समझते।" फिर शायद मुझे भी उन्हीं विद्वानों की कोटि में शुमारकर बोला—"इस पद का मतलब—" मैंने उतरे गले से बात काटकर उभड़ते हुए कहा—"चतुरी, आज गा लो, कल सुबह आकर मतलब समझाना। मतलब से गाने की तलब चली जायगी।" चतुरी खँखारकर गंभीर हो गया। फिर उसी तरह डिक्टेट करता रहा। बीच-बीच ओजस्विता लाने के लिये चरस की पुट चलती रही। गाने में मुझे बड़ा आनन्द आया। ताल पर तालियाँ देकर मैंने भी सहयोग किया। वे