१८
निराला
५
मैंने गाँव में कुछ पक्के गवाह ठीक कर दिये। सत्तू बाँधकर, रेल छोड़कर पैदल दस कोस उन्नाव चलकर, दूसरी पेशी के बाद पैदल ही लौटकर हँसता हुआ चतुरी बोला—"काका, जूता और पुरवाली बात अब्दुल-अर्ज़ में दर्ज नहीं है।"
१
आज थिएटर जाने की बात है। माडल हौसेज़ की छात्रा—तरुणियों में निश्चय हो गया है, सब एकसाथ जायँगी। निर्मला, माधवी, कमला, ललिता, शुभा और श्यामा आदि सज-सजकर एक दूसरी से मिलती हुई एकत्र होने लगीं। कमला के मकान में पहले से सबके मिलने का निश्चय हो चुका था। ज्योतिर्मयी उर्फ़ जोत अभी नहीं आई। समय थिएटर जाने का क़रीब आ गया।
ललिता बोली—"वह आज कॉलेज में इतनी खुश थी कि अवकाशवाली लड़कियों से ग़प लड़ाती मज़ाक़ करती हुई, समय से पहले घर चली आई थी। पूरे उच्छ्वास से थिएटर चलना स्वीकार किया था। मैंने पूछा भी कि क्या है, जो आज ज़मीनपर क़दम नहीं पड़ रहे हैं। जवाब न देकर मेरी ओर देखकर हँसने लगी।"
शुभा—"तो क्लास नहीं किया?"
"नः," ललिता बोली।
श्यामा—"मुझसे कहा कि पढ़ना-लिखना तो अब यहीं तक समझो।"