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निराला



 

न्याय

अभी ऊषा की रेशमी लाल साड़ी प्रत्यक्ष हो रही है—भास्कर-मुख अपर प्रान्त की ओर है, केवल केशों की सघन व्योम-नीलिमा इधर से स्पष्ट। मुख का मृदु-स्पर्श प्रकाश, लघुतम तूलि जैसे, पर दिगन्त-शोभा से उतरकर तंद्रा से अलस जीवों को जगा रहा है। खिली अमल-तास की हेमांगी शाखाएँ तरुणी-बालिकाओं-सी स्वागत के लिये सजकर खड़ी हैं। पवन पुनः-पुनः ऊषा का दर्शन शुभ-मधुर सन्देश दे रहा है। निबिड़ नीड़ाश्रय से विहंग प्रभाती गा रहे हैं।

इस सुख के समय गोमती-तट से क्षिप्र-गति दो-एक भ्रमणशील शिक्षित युवक शंकाकुल लौटते हुए देख पड़ते हैं, जैसे शीघ्र घर लौटकर भ्रमण के लिये जाने का सत्य भी छिपाना चाहते हों। भय और उद्वेग का अशुभ कारण कोई किसी से नहीं कह रहा।

उसी रास्ते के दूसरी ओर वकील लाला महेश्वरीप्रसाद रहते हैं। रोज़ सुबह उसी रास्ते घड़ी और छड़ी लेकर टहलने जाते हैं। उधर चले, तो लौटनेवाले एक अजाने आदमी को देखकर मन में चौंके। उससे घबराकर चलने का कारण डरते डरते पूछा। उत्तर में, सँभलकर उसने कहा—"आपको भ्रम हो रहा है, मैं घबराने क्यों लगा?"—फिर अपना रास्ता नापा। वकील महेश्वरीप्रसाद आगे बढ़े। गोमती के किनारे कुछ दूर जाने पर एक बड़ी करुण आवाज़ आई—"भैया! मुझे निकाल लो, तीन आदमी सुन-सुनकर चले गए, दया करो, मैं आप नहीं निकल सकता, ज़ख्मी हूँ, रात को मारकर डाल दिया है बदमाशों ने।

वकील साहब के कलेजे में हूक-सी लगी। उल्टे पैर भगे। उनका बँगला पास ही था। रास्ता छोड़कर खेतों से दौड़े। एक दूसरे बँगले