चतुरी चमार
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इसी समय महिषादल-राज्य से मुझे तार मिला कि जल्द चले आओ। मैंने सोचा, जब नामंज़ूर इस्तीफ़े पर हठवश चले आने का दोष ही हटा दिया गया, तो अब जाने में क्यों द्विधा करूँ? मैं महिषादल गया। पर, राजा, जोगी, अगिन, जल की उल्टी रीतिवाली याद न रही। यहाँ 'समन्वय' के सार्थक नाम से एक सुन्दर पत्र प्रकाशित हुआ। मेरे पास भी वह लेख के तक़ाज़े के साथ गया। मैंने उसमें 'युगावतार भगवान् श्रीरामकृष्ण' ऐसा एक लेख लिखा। जब वह प्रकाशित हुआ, तब मैंने द्विवेदीजी की राय माँगी। उन्होंने उस लेख को पढ़कर बधाई दी। मैं मौलिक लेख लिख सकता हूँ, आचार्य द्विवेदीजी के इस आशीर्वाद का सदुपयोग मैं अपने ही भीतर तब से अब तक करता जा रहा हूँ। कई और भी मेरे साहित्यिक पूज्यपादों ने उस लेख की विचारणा और भाषा-शैली के लिये मुझे प्रोत्साहन दिया। 'समन्वय' को एक बड़ी अड़चन पड़ी, और यह हिन्दी और बँगला बोलनेवालों में, मेरे विचार से, शायद अभी बहुत दिनों तक रहेगी। इधर मेरे सामने भी राजावाली उल्टी रीति पेश हुई। इसी समय 'समन्वय' के मैनेजर स्वामी आत्मबोधानन्दजी ने मुझे लिखा कि बंगालियों के भावों को समझने के लिए यहाँ ऐसा आदमी चाहिए, जो बँगला जानता हो, हमें अड़चन पड़ती है, तुम चले आओ। मैंने जाकर देखा, 'समन्वय' के आठ ही महीने में दो सम्पादक बदल चुके थे। सम्पादक की जगह नाम स्वामी माधवानन्दजी का छपता था, वह हिन्दी भी बहुत अच्छी जानते हैं, काम तथा हिन्दी की विशेषता की रक्षा के लिये 'समन्वय' में एक हिन्दी-भाषी सम्पादक रहता था। इस तरह मैं 'समन्वय' में जाकर स्वामीजी महाराजों के साथ, 'उद्वोधन' कार्यालय, बाग़बाज़ार में रहने लगा। यही पहले-पहल आचार्य स्वामी सारदानन्दजी महाराज के दर्शन किये। यह १९२२ ई॰ की बात है।
स्वामी सारदानन्दजी इतने स्थूल थे कि उन्हें देखकर डर लगता