चतुरी चमार
६१
नरेंद्र बीसवीं सदी का मनुष्य है। वह न कर सके, ऐसा कोई काम नहीं; ऐसा कुछ किया भी, ऐसा नहीं। वह मन से धर्म और अधर्म को पार कर दूर निकल गया है; पर मन में धर्म से श्रद्धा और अधर्म से घृणा करता है। वह भौंरे की तरह खुली कली पर नहीं बैठा, पर भौंरे की तरह कलियों का जस बहुत गा चुका है, उनके चारों ओर बहुत मँडलाया। उसकी कल्पना में आभा उतने रंग भर चुकी है जितने किरण भरती है—फूलों में, पहाड़ पर, बादलों में, दिशाकाश में, तरह-तरह के सुघर विचारों में। पर आभा को वरण करने की कोई शहज़ोरी भी उसमें पैदा हुई, ऐसा लक्षण नहीं देख पड़ा। सोचा ज़रूर, पर उठे सर का झुक जाना देखा, और डरा।
त्यों-त्यों आभा दृढ़ होती गई। उसकी धड़कन जाती रही। चुप-चाप स्नेह का एक लेख नरेंद्र के स्मरण-मात्र से लगने लगा। लाज फिर भी रही। एक रोज़ उसी तरह एकांत मिला। कंठ की देवी कंठ में निर्भय बैठी रही। शब्द जैसे आप बनकर, तुले हुए, निकले—"मुझे संसार में बड़ा दुःख है।"
"दुःख को देवता समझो।" नरेंद्र ने जैसे लेख की एक पंक्ति लिखी।
आभा का सारा दुःख जैसे एक साथ वाष्प बन गया—उस महाशक्ति का धड़ाका हुआ—"अर्थात् राक्षस को देवता मानूँ?"
नरेंद्र काँप उठा। क्यों डरा, न समझा। आभा ने फिर कहा—"केवल दुःख नहीं सहा जाता। रोज़ का अपमान भार हो जाता है।"
धड़कन के बाद भाव स्पष्ट हुआ। नरेंद्र ने सोचा, यह भगना चाहती है। कृत्रिम गले से बोला—"धैर्य रक्खो!"
एक बार आभा ने अच्छी तरह नरेंद्र को देखा। खुलकर बोली—"आपको लोग बहुत बड़ा विद्वान् कहते हैं—पर मैं क्या समझूँ, पर बड़े भी छोटों को नहीं समझ पाते!"