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चतुरी चमार



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करने पड़ते थे, तब पेट-भर को कहीं होता था। पेट भी दो-चार नहीं, सिर्फ़ एक। नरेंद्र को इस दुर्दशा की चिन्ता न थी। कारण, वह साहित्य का सुधार कर रहा था। आदर्शवाद को साहित्य में दर्शाकर तब वह दम लेता था—उसके लेख और पुस्तकें प्रमाण हैं। बीसवीं सदी की समस्त विचार-धाराएँ उसकी धरा से बह चुकी थीं, पर जो कुछ उसने धारण किया था, वह था मनुष्य-धर्म, जिसे अंगरेज़ी में "Rcligion of man" नए स्वरपात से, ज़ोर देकर, कहते हैं। इसमें भूत, वर्तमान और भविष्य के सब धर्म वह धर देता था।

अस्तु, नरेन्द्र घर से कलकत्ते के लिये रवाना हुआ। रास्ते में कानपुर, लखनऊ, प्रयाग, काशी, पटना, गया होता गया। मित्रों से और प्रकाशकों से मिलकर साहित्य तथा बाज़ार के हाव-भाव समझता रहा। 'आरती' के प्रकाशक ने कहा, हमारे यहाँ ८) फ़ार्म से अधिक मौलिक पुस्तक के लिये देने का नियम नहीं, रुपया पुस्तक प्रकाशित होने के तीन महीने बाद से दिया जाना शुरू होता है। सम्पादक ने कहा, हम कोई लेख बिना पुरस्कार का नहीं छापते, अवश्य नए लेखकों को २) रुपए ही प्रति लेख देने का नियम है, पर आपको हम १॥) पृष्ठ देंगे। फिर बड़ी सहृदयता से बोले, इससे अधिक 'आरती' दे नहीं सकती। सम्पादक को लेख देने का वादा कर प्रकाशक से नरेंद्र ने कहा—"आप लोग पुस्तकें बेचने के विचार से ५० और ६० प्रतिशत कमीशन बेचनेवाले को देते हैं—यह आपकी साहित्य-सेवा नहीं, अर्थ-सेवा हुई। यदि लेखकों को अधिक देने लगें, तो किताबें अच्छी-अच्छी लिखी जायँ, और साहित्य का उद्धार भी हो।" प्रकाशक ने आँखें मूँदकर कहा—"साहित्य का उद्धार हम आपसे ज़्यादा समझते हैं।" इस प्रकार अड़ता-छूटता नरेंद्र कलकत्ता गया। वहाँ बीसवीं सदी-पुस्तक-एजेंसी में ६) फ़ार्म का बँगला के रद्दी उपन्यासों के अनुवाद का काम मिला। कुछ करना ही था। काम लेकर, एक रोज़ निश्चिन्त होकर जान बाज़ार-लाइब्रेरी में बैठा