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निराला




कम्पनी के काशी पहुँचने पर 'पवित्रा' के मालिक स्वयं नरेन्द्र से मिले। पुरानी पहचान थी ही। बड़ा सम्मान-प्रदर्शन किया। नरेन्द्र ने कहा—"आपसे भाड़े का स्टेज नहीं मिला, अतः लाचार होकर मुझे दूसरा प्रबन्ध करना पड़ेगा।" नम्र भाव से मुस्कराते हुए 'पवित्रा' के मालिक ने कहा—"पवित्रा आप ही की है। आप कुछ भी न दें।"

नरेन्द्र ने कहा—"नहीं, ऐसी तो कोई बात है नहीं, आप अगर लेना चाहें।"

वैसा ही नम्र उत्तर आया—"पचास नहीं, तो चालीस सैकड़ा तो दीजिए।"

नरेन्द्र ने भौहें सिकोड़ लीं। कहा—"हमारे चालीस सैकड़े के मानी हैं, भाड़े के अलावा आपको सात-आठ सौ रुपए रोज़ मिलेंगे। अगर यही है, तो पन्द्रह सैकड़ा ले लीजिए।"

"पन्द्रह सैकड़ा!"

नरेन्द्र अट्टहास हँसा। संयत होकर कहा—"बाबू धनीरामजी, मैं ६ महीने में एक किताब लिखता था, पर उसके लिये आपने मुझे १५ सैकड़ा भी नहीं दिया!"

एक दिन, बाहर की पृथ्वी में प्रकाश की तरह प्रसिद्ध हो चुकने पर, आभा ने नरेन्द्र के पास एकान्त में बैठकर हाथ में हाथ लेते हुए कहा—"नरेन, तुम बुरा तो न मानोगे, मैं देखती हूँ, दुःख बहुत थे ज़रूर; पर मन्दिर का वह दीप जलानेवाला जीवन मुझे बड़ा सुखमय लग रहा है।"