पृष्ठ:चतुरी चमार.djvu/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

७६



निराला



गुलाबी, पीले गुलाब हिल रहे थे, जैसे हाथ जोड़े आकाश की स्तुति कर रहे हों—'खेसंभवं शंकरम्'—'खे संभवं शंकरम्' मौन वीणा बजा रही हो, सुगन्ध की झंकारें दिशाओं को आमोद-मुग्ध करती हुई।

क्षण-भर शोभा देखकर गुलाब तोड़ने लगा। ध्यान महावीरजी की ओर बह रहा था। साक्षात् भक्ति जैसे वीर की सेवा में रत हो।

लौटकर आज लाल को लाल करने चला। सिन्दूर पर गुलाब की शोभा चढ़ी। सुन्दर सब समय सुन्दर है। सजाकर देर तक देखता रहा। यही पूजा थी।

घर आया। पत्नी ने नई साड़ी पहनी थी, गुलाबी। देखकर भक्त हँसा। रात का स्वप्न मतिष्क में चक्कर काटने लगा। कहा—"तुम मन की बात समझती हो।"

सहज सरलता से पत्नी ने कहा—"तुम जैसा पसन्द करते हो, मैं वैसा करती हूँ।"

भक्त की इच्छा हुई, रात की बात कहे; पर किसी ने रोक दिया। सर झुकने लगा—न झुकाया। पत्नी सर झुकाये मुस्करा रही थी। मस्तक का सिन्दूर चमक रहा था। देखकर भक्त चुप हो गया।

उसकी पत्नी का नाम सरस्वती था। पति को चुप देखकर बोली—"मेरा नाम सरस्वती है, पर मैं सजकर जैसे लक्ष्मी बन गई हूँ।" यह छल भक्त को हँसाने के लिये किया था, पर भक्त ने सोचा, यह मुझे समझना है कि तुम विष्णु हो। वह और गंभीर हो गया। मन में सोचा, यह सब समझती है।

कुछ दिनों बाद एक आवर्त आया। भक्त के घरवाले ईश्वर के घर चले गए। धैर्य से उसने यह प्रहार सहा। पहले उसकी पत्नी मरी थी। घर बिलकुल सूना हो गया।