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तृतीय अंक
 


कल्याणी—ऐसा विराट् दृश्य तो मैंने नहीं देखा था अमात्य! मगध को किस बात का गर्व है?

राक्षस—गर्व है राजकुमारी! और उसका गर्व सत्य है। चाणक्य और चन्द्रगुप्त मगध की ही प्रजा हैं, जिन्होनें इतना बड़ा उलट-फेर किया है?

[चाणक्य का प्रवेश]

चाणक्य—तो तुम इसे स्वीकार करते हो अमात्य राक्षस?

राक्षस—शत्रु की उचित प्रशंसा करना मनुष्य का धर्म्म है। तुमने अद्भुत कार्य्य किये, इसमें भी कोई सन्देह है?

चाणक्य—अस्तु, अब तुम जा सकते हो। मगध तुम्हारा स्वागत करेगा।

राक्षस—राजकुमारी तो कल चली जायँगी। पर, मैंने अभी तक निश्चय नहीं किया है।

चाणक्य—मेरा कार्य्य हो गया, राजकुमारी जा सकती हैं। परन्तु एक बात कहूँ?

राक्षस—क्या?

चाणक्य—यहाँ की कोई बात नन्द से न कहने की प्रतिज्ञा करनी होगी।

कल्याणी—मैं प्रतिश्रुत होती हूँ।

चाणक्य—राक्षस, मैं सुवासिनी से तुम्हारी भेट भी करा देता, परन्तु वह मुझ पर विश्वास नहीं कर सकती।

राक्षस—क्या वह भी यहीं है?

चाणक्य—कहीं होगी, तुम्हारा प्रत्यय देखकर वह आ सकती हैं।

राक्षस—यह लो मेरी अगुलीय मुद्रा। चाणक्य! सुवासिनी को कारागार से मुक्त करा कर मुझसे भेंट करा दो।

चाणक्य—(मुद्रा लेकर)—मैं चेष्टा करूँगा।

[प्रस्थान]